शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

रक्तबीज

भैंसा फिर उछल रहा है !
घसीट रहा इन्सानियत को जकड़ने, डालने को कैद में
अपनी रखैल बना कर !
उछल-उछल बार बार ,चला रहा है सींग ,
खुर पटक-पटक कर खूँद रहा है धरती !
वहाँ तो बीज रक्त में थे ,
घरती पर बूँद गिरते नये शरीर खड़े हो जाते !

यहाँ तो मानसिकता है रक्तबीजी ,
फैलते हैं बीज हवा के साथ ,उगती हैं फ़सलें !
गिनती कहाँ ?उनकी फ़ितरत में है
विश्व द्रोह !

विचार- विवेक -वर्जित अँधेरों में जीना
फ़ितरत है उनकी !
ज़िन्दगी के लिये यही शर्त है उनकी !
शताब्दियों की साधना ,मनुजता की विरासत,
संस्कृतियाँ ,कलायें , विद्यायें ,
नाम-निशान मिटा दो सब का !
तोड़ दो ,जला दो सब कुछ
जो उनके अनुकूल नहीं है !

रोशनी नहीं है कहीं !
छाया है कुहासा ,,आच्छन्न हैं दिशायें,
आकाश बहुत धुँधला है ।
और
उन पर किया गया कोई भी प्रहार ,
रोप देता अगण्य रक्तबीज !

समाधान सिर्फ़ एक !
इतिहास स्वयं को दोहराये -
देवों के सार्थक अंशों से रूपायित हुई थी जैसे चण्डिका !
शक्तियाँ जगत की मिल महाकार धर ,
तुल जायँ करने को आर-पार फ़ैसला !
घेर लें दनुज को उन्मत्त महाकाली सी
क्रुद्ध, कराल और सन्नद्ध !
प्रचण्ड वार से संहारती
अपनी लाल जिह्वा लपलपाती वही चामुण्डा
तीक्ष्ण दाँतों से चबा-चबा , रक्त पी-पी
उगल डाले रिक्त अंश !

लाओ रोशनी ,किरणें बिखेरो ,
वर्ना दम घुट जायेगा -इन्सानियत का !
कि धरती मुक्त ,हवा निर्मल ,और दिशायें दीप्त हो जायें ,
कि निर्विघ्न हो सके मानवता की जय-यात्रा,
और मंगलाचरण हो एक नये युगका !

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