जन्नत का नज़ारा
बहत्तर कुआँरियाँ एक आदमी के लिये !
वाह क्या बात है !
यह है जन्नत का नज़ारा !
यहाँ तो चार पर ही मन मार कर रह जाना पड़ता है ,
और वे चारों भी समय के साथ ,
कितनों की माँ बन-बन कर हो जाती हैं रूढ़ी, पुरानी ,
अल्लाह की रहमत !
बहत्तर कुआँरियां ,
हमेशा जवान रहेंगी ,हर समय तुम्हारा मुँह देखेंगी ,राह तकेंगी !
न माँ ,न बहन ,न बेटी ,
ये सब फ़लतू के रूप हैं औरत के !
सामने न आयें !
बस बहत्तर कुआँरियाँ और दिन रात भोग-विलास !
और हमें क्या चाहिये !
अल्लाह को ख़ुश करने के लिये ,
सैकड़ों की मौत बने हमारे शरीर के चाहे चीथड़े उड़ जायें ,
बस, बहत्तर कुआँरियाँ हमें मिल जायें !
बहत्तर कुआँरियाँ एक आदमी के लिये !
वाह क्या बात है !
यह है जन्नत का नज़ारा !
यहाँ तो चार पर ही मन मार कर रह जाना पड़ता है ,
और वे चारों भी समय के साथ ,
कितनों की माँ बन-बन कर हो जाती हैं रूढ़ी, पुरानी ,
अल्लाह की रहमत !
बहत्तर कुआँरियां ,
हमेशा जवान रहेंगी ,हर समय तुम्हारा मुँह देखेंगी ,राह तकेंगी !
न माँ ,न बहन ,न बेटी ,
ये सब फ़लतू के रूप हैं औरत के !
सामने न आयें !
बस बहत्तर कुआँरियाँ और दिन रात भोग-विलास !
और हमें क्या चाहिये !
अल्लाह को ख़ुश करने के लिये ,
सैकड़ों की मौत बने हमारे शरीर के चाहे चीथड़े उड़ जायें ,
बस, बहत्तर कुआँरियाँ हमें मिल जायें !
ये पहली रचना है प्रतिभा जी...जो मुझे बिलकुल समझ नहीं आई.....:( ...बहत्तर कुंवारियां...:(
जवाब देंहटाएंऔर.....
''सैकड़ों की मौत बने हमारे शरीर के चाहे चीथड़े उड़ जायें ,''
इस पंक्ति से लग रहा है ''जेहाद'' की आड़ में आतंकी गतिविधियों से सम्बंधित आत्मघाती हमले वाली बात कही गयी है।
जी...विनती है अगर आपके पास कुछ समय हो तो कृपया कविता के भाव मुझे बहुत संक्षिप्त में बता सकें...तो...अच्छा रहेगा।
तरु जी ,
जवाब देंहटाएंआप इतने मनोयोग से कविताओं को हृदयंगम कर रही हैं ,मुझे अपना लेखन सार्थक लगने लगा है .
बहत्तर कुंवारियां- उन लोगों पर लिखी गई है जिन्हें जन्नत के सुखों का लोभ दे कर आत्मघाती हमले के लिए तैयार किया जाता है.उनके स्वर्ग की धारणा में केवल भौतिक भोग है बहत्तर कुमारियों को अकेले भोगना ही(साथ में 150 गिलमा -सुन्दर किशोर लड़के -पहले मैं भी इसका आशय नहीं समझ पाई थी) उनके लिए सबसे बड़ा आकर्षण है -यौन सुख ही जीवन का चरम सुख है.
धर्म में निहित इस मानसिकता को उजागर करना मेरा उद्देश्य था .
हम्म...!!
जवाब देंहटाएंजी...शुक्रिया.....मुझे तो आशा ही नहीं थी आप समय निकाल पाएंगी..:)
बिना आपके बतलाये ये समझ नहीं आता...हालाँकि कच्चा पक्का अर्थ तो मैंने खुद ही निकाल लिया था....मगर वो लज्ज़त कहाँ थी लफ़्ज़ों में...जो अबकी बार पढने में आई..और वो संतुष्टि..जो ''समझ लेने'' के बाद आती है..और हम आराम से दूसरी कविता के पायदान पर ज़ेहन का कदम रख सकते हैं..।
बहरहाल,
सार्थक मेरे शब्द थोड़े हैं..सार्थक आपका लेखन है....जिसकी वजह से मैं समय का सदुपयोग कर रही हूँ और...आपने इतना कह दिया...मेरी उपस्थिति को आपकी दृष्टि मिल गयी...काफी है।
बहुत आभार है अविनाश का....जिसने आपका पता diya...अन्यथा यूँ ब्लॉग पर जाना नहीं होता मेरा...बस कुछ चुनिंदा मित्रों के blogs के अलावा..।
चलिए मैं कुछ पढ़ लूं आपका लिखा हुआ ।