गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

तुम अचिर मधुमास की..

तुम अचिर मधुमास की पहली सुहागिन,
क्यों न जाने कुँज-वन मे कूकती रहतीं अकेली !
*
लाल फूलों का सुभग सिन्दूर लेकर ,
आगया ऋतुराज तेरे ही वरण को,
नवल पल्लव की सुकोमल अँगुलियों ने
रचे तोरण और बन्दनवार तेरे आगमन को,
घन्ध-भारित पुष्प-केशर ने तुम्हारा पथ सँजोया,
तुम्हें जीवनभर मिला नव-राग फिर भी
क्या न जाने बूझती रहतीं अकेली !
*
शिशिर का हिम और आतप- ताप वर्षा की झडी भी
आ नहीं पाते कभी तेरे बरस मे,
सहसहाते कुँज बौराये तुम्हारी कूक सुन ,
उडती नहीं है धूल भी तेरे हरष मे ,
किन्तु तुम होकर सभी से भिन्न ,गहरी पत्तियों के
सघन छाया-वनों मे ही डूबती रहतीं अकेली !
*
है निराला रंग सबसे ही तुम्हारा .
ये वसन्ती-वायु क्या तुमको न छू पाती कभी भी
क्या तुम्हारे तिमिर से उस श्याम तन में ,एक भी
आलोक की, अनुराग की रेखा महीं आती कभी भी ?
एक गुँजन से भरी वन-वीथियाँ जिन पर चलीं तुम,
तुम अमर मधु-मास भोगी,क्यों न जाने कूकती रहतीं अकेली !
*
तुम सुखों की हूक बन कर कूक उठतीं ,
ओ मुखर एकान्त की व्याकुल निवासिनि ,
तुम मिलन के मधु प्रहर मे भी अकेली ,
प्यार के पहले क्षणो मे भी विरागिन ,
सुख-सुरभि-सौंदर्य के नीरव जगत में ढाल देतीं
मर्मस्पर्शी मधुर स्वर-लहरी रुपहली !
*

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