उल्लास की लहर सी
आ गई तू !
*
मेरे मौन प्रहरों को मुखर करने !
दूध के टूटे दाँतों के अंतराल से अनायास झरती
हँसी की उजास बिखेरती ,
सुरभि-चन्दना , परी सी ,
मोहिनी डालती आ गई तू !
*
देख रही थी मैं खिड़की से बाहर -
तप्त ,रिक्त आकाश को ,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू !
सरस फुहार -सी झरने
उत्सुक चितवन ले !
आ गई तू ,
*
चुप पड़े कमरे बोल उठे ,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने ,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं !
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अनदर की ओर !
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में ,
आ गई तू !
*
सहज स्नेह का विश्वास ले ,
मुझे गौरवान्वित करने !
इस शान्त -प्रहर में ,
उज्जवल रेखाओं से राँगोली रचने ,
रीते आँगन में !
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर ,
आ गई तू !
*
सुरभि-चन्दना-परी सी ,
मोहिनी डालती आ गई तू !
*
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
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प्यारी कविता....सरल शब्दों से सजी हुई...सहज ही ह्रदय तक पहुँचती और उसे हल्का बनती हुई........:)
जवाब देंहटाएं''बहुत पहले बचपन में 'गृहशोभा' की एक कहानी में एक चित्र छपा था.....एक बड़ी सी बिंदी लगाये ..पारंपरिक साड़ी पहने ...सुहाग चिन्हों से सुसज्जित...ढीले बंधे हुए केश...अधरों पे मुस्कान रखे..बालकनी से बाहर देख रही एक स्त्री...और उसके एकदम पीछे चुपके से आ रही स्कूल ड्रेस में एक ३-४ साल की बच्ची की....''
आपकी इस कविता ने वो दृश्य याद दिला दिया....जो मैं भूल चुकी थी लगभग।