सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

हमारे साथ आ जाओ

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मनुज के सुयश की गाथा,यहीं पर रुक नहीं जाये,
विषमतायें हटा कर विश्व भर में शान्ति लाना है !
धरा के महाद्वीपों,सिन्धुतट,अक्षाँश,देशान्तर ,
हमारे साथ आ जाओ,मनुजता को बचाना है !
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बचेगी अस्मिता जब एकजुट हो कर खड़े होंगे ,
सुनो भूमध्य-तट,अफ़्रीकियों ओ,एशियावालों ,
उठा लो हाथ में भूगोल ,फिर नूतन क्षितिज ढूँढें ,
नये पन्ने लिखें इतिहास में उजले हरफ़वाले !
हमें तो जूझना है ,दुख ,अभावों और रोगों से
यहाँ विज्ञान को कल्याण का साधन बनाना है !
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जहाँ पर नफ़रतों के सबक ले बचपन बिदा होता,
जहाँ रिश्ते सभी हैवानियत की भेंट चढ़ जायें!
जहाँ इन्सान से इन्सान रिश्ता नहीं बनता,
मनुज की देह को बारूद पहना मौत बरसायें!
न बैठे चैन से ये बैठने ,देंगे न दुनिया को ,
उन्हीं गद्दार लोगों से धरा अपनी बचाना है !
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जिन्हें निज जन्म-भू की वंदना भी कुफ़्र लगती हो ,
कहो उनसे कि जाकर आसमानों में रहें वे सब !
कि उन परजीवियों का बोझ कब तक धरा झेलेगी,
यहां का अन्न-जल ऐसे कृतघ्नों को न पाले अब!
निरंतर घूमता गोला जिसे दुनिया कहा जाता,
शिखर से दे रही आवाज़ मन का सच जगाना है !
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कँवारी देह की शुचिता जिन्हें बर्दाश्त ही ना हो ,
कि जिनका पशु-सुखों के हेतु नारी देह से नाता ,
कि सहचरि क्या,न इसका अर्थ जाना ही न हो जिनने ,
दमन नारीत्व का हर पग जहाँ पुरुषत्व कहलाता !
जगत की नारियों जीवन-फ़सल कुत्सित न हो जाये ,
कि अपनी कोख को सारी विकृतियों से बचाना है !
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तुम्हीं ने प्रेम को जीवन दिया औ शिशु बना पाला ,
तुम्हीं ने ज़िन्दगी की धार को अविरल बहाया है !
तुम्हारी सृष्टि है,दायित्व लो इसको बचाने का,
जगत सामर्थ्य तो देखे कि मौका आज आया है !
हमारे पुत्र कन्यायें भविष्यत् की धरोहर हैं ,
धरा का और माटी का हमें यों ऋण चुकाना है!
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कलाओँ और विद्या-संस्कृति की निधि न लुट जाये,
सभी निर्माण अपने एकजुट होकर बचा लें हम !
हमारी चेतना के स्वर प्रखरतर हो यहाँ गूँजें,
यहाँ अविवेक ,पशुता मूढ़ता को ध्वस्त कर दें हम !
कि अविरल धार जीवन की सदा निर्मल प्रवाहित हो ,
रहे वसुधा कुटुंब बन कर हमें यह कर दिखाना है !
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धरा के महाद्वीपों ,सिन्धुतट,अक्षांश,देशान्तर ,
हमारे साथ आ जाओ ,मनुजता को बचाना है !
हमारे साथ आजाओ ,हमारे साथ आ जाओ ,
मनुजता को बचाना है!
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