बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

अभिशप्त

रात का धुँधलका , सिर्फ़ तारो. की छाँह !

मैने देखा --
मन्दिर से निकल कर एक छायामूर्ति
चली जा रही है विजन वन की ओर !
आश्चर्य-चकित मैने पूछा ,
' देवि ,आप कौनहैं ?
रात्रि के इस सुनसान प्रहर मे ,
अकेली कहाँ जा रही हैं ?'
*
वह चौंक गई ,कुछ रुकी बोली ,
' मै जा रही हूँ राम के वामांग से उठ कर ,
चिर दिन के लिए ,
क्योंकि विश्वास और सत्य प्रमाण - सापेक्ष नहीं होते !
चेतनामयी नारी का स्थान
जहाँ ले ले सोने की मूरत ,
मर्यादा का यह आचार ,
मै , वैदेही की चेतना- छाया ,
जड़ -सी देखती रह गई !
अब मै जा रही हूँ सदा-सदा के लिये !
*
'अब ?इतने समय बाद ? आज ? "
मेरे मुँह से निकल पड़ा !
वह उदास सी मुस्कराई -
'तुम आज देख पाई हो !
मै तो जा चुकी शताब्दियों पहले ,
सरयू अपार जल-राशि बहा चुकी है तब से ,
श्री-हत अयोध्या अभिशप्त है तभी से !'
*