(स्वतंत्रता के बाद पहले महाकुंभ के अवसर पर ऐसी अव्यवस्था हो गई कि भीड़ में अँधाधुंध भागदड़ मच गई और बहुत लोग गिर-गिर कर रौंदे जाते रहे -अधिकारी वर्ग पं. नेहरू के स्वागत में व्यस्त था.तब लिखी गई थी यह - कुंभ-कथा)
*
मानव के यह आँसू शायद सूख चलें पर ,
मानवता के अश्रु-लिखित यह करुण कहानी अमर रहेगी !
*
स्वतंत्रता के बाद प्रथम ही ,महामृत्यु का निर्मम मेला ,
जाने कौन पाप की छाया लाई महाकुंभ की बेला .
गंगा-यमुना के संगम पर जीवन-मृत्यु गले मिलते थे .
आँसू और रक्त की बूँदें लिए मानवी तन चलते थे .
*
जहाँ अमृत की बूँद गिरी थी वहीं मृत्यु का नृत्य हुआ था .
तीर्थराज की पुण्य-भूमि में भक्ति भाव वीभत्स हुआ था ,
घोर अमाँ की काली छाया, यह संगम श्मशान बना था,
बच कर भागें कहाँ? पगों के आगे तो व्यवधान घना था .
*
गंग-यमुन धाराएँ बहतीं ,कहो सरस्वति ,स्वर सरिता बन
इधर काल अपना मुँह बाए, उधऱ हो रहा था अभिनन्दन !
खेल रही थी मृत्यु भाग्य की ओट लिए नर के प्राणों से
जननायक के कर्ण बंद थे किन्तु वहीं स्वागत गानों से ,
*
उन भोगों में डूब कौन सुन पाता तट के आकुल- क्रन्दन !
राग-रंग थे वहाँ दावतें उड़ती थीं ,उड़ते थे व्यंजन,
अरी त्रिवेणी ,कहाँ बहा ले जाती तू यह रक्तिम धारा ,
तीरथ व्रत का यही समापन ,किसके पापों का निपटारा .
*
तीर्थराज की पुण्य-भूमिपर जब-जब उमड़ेगा जन-सागर ,
पुरा कथा की नयी वर्णना इसको किसका पाप कहेगी !
मानवता के अश्रुलिखित ,यह करुण कहानी अमर रहेगी !
*