शनिवार, 24 जुलाई 2010

बताओ क्या करोगे

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जब न मैं होऊ ,बताओ क्या करोगे १
नए ढँग से ज़िन्दगी का हर पहाड़ा ,
बहुत श्रम से सीखना होगा दुबारा
इसलिए कुछ धैर्य धर शुरुआत कर लो ,
भंग होगा क्रम जहाँ मेरा -तुम्हारा !
कौन समझेगा ,अकेले ही सहोगे !
*
मुझे अब कोई भनक लगने लगी है ,
कान में कुछ वंशियाँ बजने लगी हैं ,
दूर के कुछ स्वर सुनाई दे रहे हैं
देहरी हल्दी लगे अक्षत झरे हैं
हो रहा जो दोष किसके सर धरोगे
*
एक दिन भूले भटकते आ गए थे ,
लौटना ही नियति है फिर से वहीं पर !
सिर्फ़ अपने ही लिए जीवन नहीं है
दाँव हर पल लग सके जो खुश वही है
कौन समझेगा ,किसी से क्या कहोगे!
*
समय भी रुकता नहीं है बीतता है
और साँसों से भरा घट रीतता है .
एक दिन दुनिया समझना है स्वयं ही ,
भान अपना रहे अपने को स्वयं ही
साथ रह कर भी सभी से दूर होगे ,
*
यह निमंत्रण कौन अनदेखी सका कर ,
यह अकेली यात्रा है छोड़ कर घर
क्या पता कितना समय अब भी रहा है ,
पर समेटूँ जो बहुत बिखरा हुआ है /
बीच की इस अवधि को कैसे भरोगे !
*
जिन्दगी तो हर तरह जीनी पड़ेगी
सब बहाती काल की धारा रहेगी
कौन कब कर ले न जाने कौन सा रुख
यही निर्भरता बहुत देगी कभी दुख ,
इन्हीं लहरों में विवश हो कर बहोगे !

किन्तु मैं भी क्या कहूँ इस मोड़ पर आ ,
समझना होगा कि अब तक जो न समझा .
आड़ अब कोई न होगा आसरा भी ,
यों अचानक ही बहुत घबराएगा जी
मार लोगे मन कि अनखाए रहोगे ,
*
और फिर भी चलेगा अविराम जीवन
किस तरह बीतें न जाने शेष के दिन !
कौन देखेगा कि तुम क्या चाहते हो ,
किस तरह मंझधार अपनी थाहते हो
भीड़ में भी एक सन्नाटा गहोगे !!
*

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

कौन गति !

*
कौन गति !
एक नन्हीं-सी ज्योति !
माटी में आँचल में अँकुआता बीज !
काल -धारा में बहे जा रहे जीवन को
निरंतरता की रज्जु में बाँधता,
भंगुर-से तन में सँजोए नवनिर्माण कण
काल से आँख मिलाती नव-जीवन रचती
धरती या नारी ?
*
उस अंतर्निहित ज्योति का स्फोट
दर्पण पर प्रतिवर्तित असह्य प्रकाश !
स्तबध काल-भुजंग अँधिया जाये
अपना दाँव न चल सके
तो तुम सहानुभूत या भय-भीत से
बोल दिए -
'नारी की छाया परत
अंधा होत भुजंग !'
*
निःस्व समर्पण के क्षणों में
बहुत भाती है न बहुरिया ?
फिर मस्ती में डूबा मन ,और आहत अहं
जब बिठा नहीं पाता संगति
व्यवहार -जगत की वास्तविकताओं से
परिणामों से दामन बचा
बचते-भागते
उसी पर दोष धरते, गरियाते ,
बन जाते हो ख़ुद
राम की बहुरिया !
*
सोचते रहते हो -
'तिनकी कौन गति
जे नित नारी संग?'
सुनो कबीर,
जिसमें सामर्थ्र्य होगी, भागेगा नहीं,
अर्धांग में धारण कर
बन जाएगा पूर्ण-पुरुष !
निर्भय-निर्द्वंद्व !
*