लौट चल रे मन ,उसी फिर कटघरे में ,
फिर वहीं के एक खाँचे में समाने ,
उसी चक्कर में निरंतर घूमने को ,
जो कहीं भी ले न जाये कुछ बताने ,
*
पुरातन वटवृक्ष जिसकी छाँह में ,
लिक्खा उधारों का रहा जो ब्याज बाकी
कौन जाने कौन चुकता कर गया है ,
कौन ले कर भार बैठा मूल का भी
लौट चल रे ,यहां रोकेगा न कोई ,
स्वयं से कैसे करेगा अब बहाने !
*
ज्यों पिता का प्यार पुत्री को बिदा दे ,
डालियां हिलती हुई आशीष जैसी ,
सघन पत्तों से छलक कर तरलतायें
उस झुके से शीष को अभिषेक देतीं
क्या पता कब कौन लौटेगा यहां पर
एक दूजे की कथा सुनने-सुनाने
*
लाभ हानि विचारने का सुध नहीं क्यों
जब निभाना हैं यहाँ के सभी धंधे
काल के कुछ दंश तीखे हैं बहुत
पर जी रहे है अभी तक तो भले चंगे
बुढ़ापे को याद हैं अपना ज़माने
और यौवन के निराले ही फ़साने
*
शनिवार, 23 जनवरी 2010
सोमवार, 18 जनवरी 2010
प्रस्थान -
जब अपने से छोटे
और उनसे भी छोटे
रुख़सत हो
निकलते चले जाते हैं सामने से
एक-एक कर ,
अपना जीवन अपराध लगता है .
जब वंचित रह जाते हैं लोग,
उस सबसे जो हमने पाया ,
तरसते देख गुनाह लगती हैं
अपनी सुख-सुविधायें कि दूसरे का हिस्सा
हम अब भी दबाये बैठे हैं .
अपनी सारी क्षमताये बेकार
कि अब कौन सी सार्थकता बाकी रह गई ?
भाग्यशाली हैं वे ,
जो जीवन-मृत्यु को
सही सम्मान दे ,
समय से प्रस्थान कर जाते हैं .
*
और उनसे भी छोटे
रुख़सत हो
निकलते चले जाते हैं सामने से
एक-एक कर ,
अपना जीवन अपराध लगता है .
जब वंचित रह जाते हैं लोग,
उस सबसे जो हमने पाया ,
तरसते देख गुनाह लगती हैं
अपनी सुख-सुविधायें कि दूसरे का हिस्सा
हम अब भी दबाये बैठे हैं .
अपनी सारी क्षमताये बेकार
कि अब कौन सी सार्थकता बाकी रह गई ?
भाग्यशाली हैं वे ,
जो जीवन-मृत्यु को
सही सम्मान दे ,
समय से प्रस्थान कर जाते हैं .
*
शनिवार, 16 जनवरी 2010
चलो कहीं निकल चलें
!
बस्ती से दूर किसी जंगल मे टहल चलें !
खिले-खिले मुक्त मन लपेटलाग छोड सभी ,
खिल-खिल हँसी से भरी मनचाही बातें हों !
अपनी बेवकूफियाँ सुनाएं - सुने मुक्तमन ,
किसी और नई जगह निकल चलें-सैर करें !
*
नदिया के तीर बैठ लहरों की बनन - मिटन ,
फिसलती बालू से सीप-शंख बीनेगे ,
बीती सो बात गई ,रीति-नीति सारी
बेमानी हो छूट गई !
सारे ये झंझट अब यहीं छोड़ निकल चलें !
*
.टेरना बेकार ,गुनगुनाता चल अकेला मन ,
प्रात कहीं होगा और रात कहीं बीतेगी ,
अपने काम का हो जो ,समेटने को क्या धरा,
फेन बुलबुलों से भरी प्याली तो रीतेगी !
कहे-सुने बिना ,अनायास उठ निकल चलें !
चलो कहीं निकल चलें !
*
बस्ती से दूर किसी जंगल मे टहल चलें !
खिले-खिले मुक्त मन लपेटलाग छोड सभी ,
खिल-खिल हँसी से भरी मनचाही बातें हों !
अपनी बेवकूफियाँ सुनाएं - सुने मुक्तमन ,
किसी और नई जगह निकल चलें-सैर करें !
*
नदिया के तीर बैठ लहरों की बनन - मिटन ,
फिसलती बालू से सीप-शंख बीनेगे ,
बीती सो बात गई ,रीति-नीति सारी
बेमानी हो छूट गई !
सारे ये झंझट अब यहीं छोड़ निकल चलें !
*
.टेरना बेकार ,गुनगुनाता चल अकेला मन ,
प्रात कहीं होगा और रात कहीं बीतेगी ,
अपने काम का हो जो ,समेटने को क्या धरा,
फेन बुलबुलों से भरी प्याली तो रीतेगी !
कहे-सुने बिना ,अनायास उठ निकल चलें !
चलो कहीं निकल चलें !
*
बुधवार, 13 जनवरी 2010
ले चलो उन निर्जनों में
आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में ,
किसी पग की चाप से आगे वनों में
ले चलो उस तट बिना पहचानवाले ,
जहां कोई आ नहीं पाये पता ले
*
जिस जगह ,संध्या-सुबह चुपचाप आयें ,
रात्रियाँ आ मौन ही फिर लौट जायें ,
जहाँ कोई प्रश्न उठ पाये न आगे ,
जिस जगह ,बस मौन का ही राग जागे
*
चलो अब कुछ काल वहीं व्यतीत कर लें
यहँ से कुछ भी बताये बिन निकल लें
दूर इतनी यहाँ की किरणे न आयें
यहाँ की यादें वहाँ तक जा न पायें
*
पार सबको कर चलो ऐसी दिशा में ,
इन तटों से दूर हो कुछ दिन बिताने
ले चलो उस ओर कोई द्वीप होगा ,
वहाँ से आकाश बहुत समीप होगा .
*
चलो मेरे साथ चाहे लौट आना ,
यहँ से बस कर चलो कोई बहाना
ले चलो उन दूरियों तक जहां कोई भी न जाये
या कि उन गहराइयों में जहाँ कोई डूब जाये
*
चलो माँझी उघर के शीतल घनों में
आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में .
*
किसी पग की चाप से आगे वनों में
ले चलो उस तट बिना पहचानवाले ,
जहां कोई आ नहीं पाये पता ले
*
जिस जगह ,संध्या-सुबह चुपचाप आयें ,
रात्रियाँ आ मौन ही फिर लौट जायें ,
जहाँ कोई प्रश्न उठ पाये न आगे ,
जिस जगह ,बस मौन का ही राग जागे
*
चलो अब कुछ काल वहीं व्यतीत कर लें
यहँ से कुछ भी बताये बिन निकल लें
दूर इतनी यहाँ की किरणे न आयें
यहाँ की यादें वहाँ तक जा न पायें
*
पार सबको कर चलो ऐसी दिशा में ,
इन तटों से दूर हो कुछ दिन बिताने
ले चलो उस ओर कोई द्वीप होगा ,
वहाँ से आकाश बहुत समीप होगा .
*
चलो मेरे साथ चाहे लौट आना ,
यहँ से बस कर चलो कोई बहाना
ले चलो उन दूरियों तक जहां कोई भी न जाये
या कि उन गहराइयों में जहाँ कोई डूब जाये
*
चलो माँझी उघर के शीतल घनों में
आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में .
*
शनिवार, 2 जनवरी 2010
एक जनम
मुक्ति नहीं,
एक जनम ,
मगन मगन !
*
तन्मय विशेष
कुछ न शेष
पूर्ण लीन
मात्र अनुरक्ति
हो असीम तृप्ति
सिक्त मन-गगन
एक जनम ,
*
धरा हो ऋतंभरा ,
जीवन संतृप्ति भरा
तन ,मन विभोर
निरखें दृग कोर ,
मेघ वन सघन .
एक जनम
*
मुक्ति नहीं,
हो अनन्त राग ,
विरहित विराग
लहर-लहर दीप ,
सिहर-सिहर प्रीत
नृत्यरत किरन
एक जनम
*
भर-पुरे अस्त उदय
भाव-भेद शमित,
परम तोष
शमित ताप
स्निग्ध दीप्तिमय गगन.
एक जनम ,
*
मुक्ति नहीं ,
परम परिपूर्ण मगन,
लघु भले कि लघुत्तम
एक जनम.
जनम-जनम की मिटे थकन
एक जनम .
एक जनम ,
मगन मगन !
*
तन्मय विशेष
कुछ न शेष
पूर्ण लीन
मात्र अनुरक्ति
हो असीम तृप्ति
सिक्त मन-गगन
एक जनम ,
*
धरा हो ऋतंभरा ,
जीवन संतृप्ति भरा
तन ,मन विभोर
निरखें दृग कोर ,
मेघ वन सघन .
एक जनम
*
मुक्ति नहीं,
हो अनन्त राग ,
विरहित विराग
लहर-लहर दीप ,
सिहर-सिहर प्रीत
नृत्यरत किरन
एक जनम
*
भर-पुरे अस्त उदय
भाव-भेद शमित,
परम तोष
शमित ताप
स्निग्ध दीप्तिमय गगन.
एक जनम ,
*
मुक्ति नहीं ,
परम परिपूर्ण मगन,
लघु भले कि लघुत्तम
एक जनम.
जनम-जनम की मिटे थकन
एक जनम .
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