गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

शब्द ही हैं मन्त्र

*
झील मे वे हंस से तिरते शिकारे ,
अप्सराएं, नाव फूलों से सँवारे १
*
घाटियों मे भर कुहासा कुहुक पढ़ती
एक माया-लोक की रचना अनोखी ,
रंग-पूरित ,गंध-वासित जुगनुओं से टाँक
पट झीना , धरा - नभ को मिलाती !
हिम - कणों युत हरित-वसना ,
मोतियों से जड़ा पन्ना,
सिहरते केशर -पुलक में रेशमी सन्ध्या-सकारे !
*
जहाँ जीवन था बना भारी समस्या,
सतीसर जलराशि ,कश्यप की तपस्या,
प्रतिफलित इस रम्य धरती में हुआ ,
कश्मीर रूपायित रुचिर स्वार्गिक जगत सा !
रचा विल्हण ने यहाँ इतिहास पहला ,
नाम झेलम की तरंगों पर दिया रे !
*
शाक्त-शैवों-सूफ़ियों के गूँजते स्वर ,
और ललितादित्य का मार्तण्ड मन्दिर ,
प्रति प्रहर नव-रंग मे क्षीरा भवानी
नागअर्जुन बोधिसत्व हुए यहीं पर !
बाल हज़रत के सुरक्षित रख सका जो
प्रेम, करुणा औ" शुभाशंसा सहारे !
*
मनुज-संस्कृति-स्वर्ण को कुन्दन बनाती ,
बंग से गान्धार तक को जा मिलाती,
भारती के वरद पुत्रों की सुचिन्ता ,
चीन औ"जापान तक को जगमगाती ,
सुचित होकर शान्त चिन्तन को जहाँपर ,
विश्व-पीड़ा-भार व्याकुल स्वयं प्रभु ईसा पधारे !
*
एक झोंका बर्बरों की पाशवी उन्मत्तता का
टूट बिखरीं सहस्रों संवत्सरों की साधनायें ,
उस समृद्ध अतीत से वंचित भविष्य हुआ सदा को
धूल बन कर उड़ गईं यों विश्व की आकाँक्षायें !
सूर्य-किरणें ताप खो होतीं सुशीतल सौम्यता भर ,
उसी धरती पर बिछे पग-पग अँगारे !
*
मान लो यह ,मानना होगा किसी दिन,
विश्व-मंगल हेतु उपजे धर्म सारे !
धर्म भाषा रहे कोई,शब्द जो शिव और सुन्दर ,
शारदा वागीश्वरी की वन्दना के मन्त्र सारे !
*

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें