tag:blogger.com,1999:blog-71107756615338793292024-03-12T16:22:32.142-07:00स्वर-यात्राप्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.comBlogger56125tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-48709391017668391982010-12-27T12:51:00.000-08:002013-02-27T18:54:42.823-08:00बीतते बरस लो नमन !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
<br />
<br />
बीतते बरस लो नमन !<br />
<br />
*<br />
<br />
जुड़ गया एक अध्याय और ,<br />
<br />
गिनती आगे बढ़ गई ज़रा ,<br />
<br />
जो शेष रहा था कच्चापन ,<br />
<br />
परिपक्व कर गए तपा-तपा .<br />
<br />
आभार तुम्हारा बरस ,<br />
<br />
कि<br />
<br />
तोड़े मन के सारे भरम !<br />
<br />
*<br />
<br />
फिर से दोहरा लें नए पाठ,<br />
<br />
दो कदम बिदा के चलें साथ .<br />
<br />
बढ़ महाकाल के क्रम में लो स्थान ,<br />
<br />
रहे मंगलमय यह प्रस्थान !<br />
<br />
चक्र घूमेगा कर निष्क्रम ,<br />
<br />
नये बन करना शुभागमन !<br />
<br />
अभी लो नमन !<br />
<br />
*<br />
- प्रतिभा.</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-37301157673187487412010-11-10T22:00:00.000-08:002020-05-07T17:16:22.927-07:00भिक्षां देहि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<br /></div>
<div>
*<br />
( माँ भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है- समय का फेर !)<br />
<br />
रीत रहा शब्द कोश ,<br />
छीजता भंडार ,<br />
बाधित स्वर ,विकल बोल<br />
जीर्ण वस्त्र तार-तार .<br />
भास्वरता धुंध घिरी<br />
दुर्बल पुकार<br />
नमित नयन आर्द्र विकल<br />
याचिता हो द्वार-<br />
'देहि भिक्षां ,<br />
पुत्र ,भिक्षां देहि !'<br />
*<br />
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,<br />
शब्दों के साथ लुप्त होते<br />
सामर्थ्य-बोध<br />
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,<br />
अव्यक्त हो विलीन<br />
देखती अनिष्ट वाङ्मयी शब्दहीन<br />
दारुण व्यथा पुकार -<br />
'भिक्षां देहि, पुत्र !<br />
देहि में भिक्षां'<br />
*<br />
अतुल सामर्थ्य विगत<br />
शेष बस ह्रास !<br />
तेजस्विता की आग ,<br />
जमी हुई राख<br />
गौरव और गरिमा उपहास<br />
बीत रही जननी ,तुम्हारी ,<br />
मैं भारती .<br />
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश<br />
बार-बार कर पुकार -<br />
'देहि भिक्षां, पुत्र,<br />
भिक्षां देहि'!<br />
*<br />
शब्द-कोश संचित ये<br />
सदियों ने ढाले ,<br />
ऐसे न झिड़को ,<br />
व्यवहार से निकालो<br />
काल का प्रवाह निगल जाएगा<br />
अस्मिता के व्यंजक अपार अर्थ ,भाव दीप्त<br />
आदि से समाज बिंब<br />
जिसमें सँवारे<br />
मान-मूल्य सारे सँजोये ये महाअर्घ<br />
सिरधर ,स्वीकारो<br />
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष<br />
देवि भारती पुकारे<br />
'भिक्षां देहि !<br />
पुत्र ,देहि भिक्षां !'<br />
*<br />
फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,<br />
देह दुर्बल ,मलीन<br />
भारती निहार रही<br />
बार-बार करुण टेर -<br />
'देहि भिक्षां ,<br />
पुत्र, भिक्षां देहि !'<br />
*</div>
<div>
<br /></div>
</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-28349623576560977942010-10-18T21:07:00.000-07:002013-02-28T10:49:28.575-08:00दुर्लभ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक सीमा है हर रिश्ते की , <br />
<br />
एक मर्यादा ,<br />
<br />
एक पहुँच!<br />
<br />
बस वहीं तक <br />
<br />
निश्चित- निश्चिन्त. <br />
<br />
शोभनीय -सुरुचिमय . <br />
<br />
प्रसन्न और सुन्दर ! <br />
<br />
* <br />
<br />
इसके आगे कोरा छलावा . <br />
<br />
विकृत, सामंजस्यहीन , <br />
<br />
दुराव-छिपाव का ग्रहण , <br />
<br />
शंकाओं का जागरण.<br />
<br />
क्योंकि अस्लियत <br />
<br />
मन जानता है ,<br />
<br />
कोई जान सकता भी नहीं. <br />
<br />
अवशिष्ट अपराध-बोध , <br />
<br />
अंतरात्मा पर बोझ,<br />
<br />
जिससे कहीं छुटकारा नहीं . <br />
<br />
* <br />
<br />
निर्णय सिर्फ अपना , <br />
<br />
धिक्कारे कोई कितना , <br />
<br />
क्या फ़र्क पड़ेगा <br />
<br />
हो जाये विमुख दुनिया , <br />
<br />
न मिले प्रशंसा , <br />
*<br />
<br />
बहुत कुछ छूट जाता है पीछे , <br />
<br />
रह जाता मिलते-मिलते <br />
<br />
जब सौदा नहीं कर सके मन , <br />
<br />
चला आये चुपचाप . <br />
<br />
न मिले !<br />
<br />
बस,आत्मबल साथ रहे , <br />
<br />
अपने आगे ही <br />
<br />
सिर तो नहीं झुके ! <br />
<br />
* <br />
<br />
जानती हूँ <br />
<br />
केवल अशान्ति आएगी हिस्से में. <br />
<br />
और निन्दा भी . <br />
<br />
स्वीकार ! <br />
<br />
लाद दिए जिसने कलंक , <br />
<br />
लौट जायेंगे वहीं, <br />
<br />
बोझिल धुएँ की धुंध <br />
<br />
आत्मा को नहीं व्यापे , <br />
<br />
कोई पछतावा नहीं , <br />
<br />
* <br />
<br />
दुख होगा , <br />
<br />
बीत जाएगा धीरे-धीरे , <br />
<br />
बस मेरा 'मैं' . <br />
<br />
प्रखर -चैतन्य मय रहे <br />
<br />
अपने आप में ,<br />
<br />
साथ कोई हो या नहीं ,<br />
<br />
अश्रु-धुले स्वच्छ अंतःकरण से दुर्लभ, <br />
<br />
और भी कुछ है क्या ? <br />
<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-46875024206848339492010-10-01T18:07:00.000-07:002013-02-27T17:22:12.573-08:00मैं तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
शैशव की लीलाओँ में <br />
<br />
वात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले ,<br />
<br />
सबसे घिरे तुम ,<br />
<br />
दूर खड़ी देखती रहूँगी .<br />
<br />
यौवन की उद्दाम तरंगों में ,<br />
<br />
लोकलाज परे हटा ,आकंठ डूबते रस-फुहारों में <br />
<br />
जन-जन को डुबोते ,<br />
<br />
दर्शक रहूँगी ,<br />
<br />
कठिन कर्तव्य की कर्म-गीता का संदेश <br />
<br />
कानों से सुनती-गुनती रहूँगी .<br />
<br />
*<br />
<br />
लेकिन ,<br />
<br />
जब अँधे-युग का ,<br />
<br />
सारा महाभारत बीत जाने पर ,<br />
<br />
बन-तुलसी की गंध से व्याप्त<br />
<br />
अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले ,<br />
<br />
ओ सूत्रधार ,तुम चुपचाप अकेले <br />
<br />
अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,<br />
<br />
उन्हीं क्षणों में तुम्हारे मन से<br />
<br />
जुड़ना चाहती हूँ <br />
<br />
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ <br />
<br />
*<br />
<br />
यहां कुछ समाप्त नहीं होता ,<br />
<br />
क्योंकि तुम सदा थे रहोगे ,<br />
<br />
और मैं भी .<br />
<br />
लीला तो चल रही है<br />
<br />
सृष्टि के हर कण में ,<br />
<br />
हर तन में ,हर मन में .<br />
<br />
इस सीमित में उस विराट् को <br />
<br />
अनुभव करना चाहती हूँ.<br />
<br />
*<br />
<br />
कि सारी वृत्तियों पर छाये <br />
<br />
इस सर्वग्रासी राग को,<br />
<br />
समा लो अपने में .<br />
<br />
लिए जाओ अपने साथ <br />
<br />
जो असीम में डूबते मुझसे पार <br />
<br />
अनंत होने जा रहा है .<br />
<br />
* <br />
<br />
वही अनुभूति ग्रहण कर <br />
<br />
मन एक रूप हो जाए. <br />
<br />
कि यह भी अपरंपार हो जाए . <br />
<br />
व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,<br />
<br />
जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें !<br />
<br />
और फिर अनासक्त , <br />
<br />
डुबो दूँ, अथाह जल में,<br />
<br />
अपनी यह रीती गागर <br />
<br />
.*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-61210584480986935972010-09-06T11:58:00.000-07:002013-02-27T18:45:41.890-08:00कथा एक -<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कथा एक -<br />
*<br />
इन भीड़ भरी राहों की गहमा-गहमी में हर ओर पथिक मिल जाते हैंआगे-पीछे ,<br />
दो कदम साथ कोई कोई चल पाता पर हँस-बोल सभी जा लगते अपने ही रस्ते.<br />
अपनी गठरी की गाँठ न कर देना ढीली ,नयनों में कौतुक भर देखेंगे सभी लोग ,<br />
चलती-फिरती बातें काफ़ी हैं आपस की ,औरों के किस्से जाने सबको बड़ा शौक .<br />
*<br />
वे गाँव- घरों के भीगे हुए पुराने पल ,सड़कों पर बिखरे अगर धूल पड़ जाएगी .<br />
अनमोल बहुत है एक अमानत सी जब तक ,खुल गई टके भर की कीमत रह जाएगी<br />
जाने क्या लोग समझ लें ,जाने क्या कह दें, बोलना बड़ा भारी पड़ जाता कभी-कभी <br />
चुपचाप ज़रा रुक लें लंबा अनजाना पथ, फिर चल देना है आगे जिधर राह चलतीं . <br />
*<br />
वैसे तो पात्र बदल जाते हरबार यहाँ पर कथा एक चलती आती है लगातार !<br />
इस पथ के जाने कितने ऐसे किस्से हैं ,संवाद वही ले पर पात्र बदलते बार बार <br />
जाने कितने गुज़रे होंगे इस मारग से ,कितनी आँखें रोई होंगी अनगिनत बार ,<br />
जाने कितनों की निधि लुट गई अचानक ही ,लग गए साथ सहयात्री बन कर गिरह-मार .<br />
*<br />
जाने कितने गाँवों की पगडंडी चलते हम जैसे सारे लोग यहां तक आ पहुँचे, ,<br />
कुछ भटके से तकते हरेक चेहरा ऐसे , ख़ुद की पहचान कहीं खो आए हों जैसे ,<br />
इस मेले की यह आवा-जाही जो दिखती है, हर संझा को खाली हो जाता सूनसान ,<br />
थक कर चुपचाप बैठ जाती तरु के तल में दिनभर की चलती थकी हुई यह घूम-घाम.<br />
* <br />
अनजाने आगत के प्रति क्यों पालें विराग ,जो द्वार खड़ा उसका भी थोड़ा मान रहे ,<br />
सम हो कर जिसका दाय उसे सौंपो उसका , संयमित मनस् में हर आगत का मान रहे<br />
लंबा अनजाना पथ रे बंधु, ज़रा रुक लें आवेग शमित करने को आगे कहां ठौर,<br />
कहने को तो कुछ तो नहीं बचा चुपचाप चलें जब तक राहें मुड़ जाएँ अपनी कहीं और.<br />
<div>
*</div>
</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-5669792106253356552010-08-18T17:53:00.000-07:002010-08-18T17:53:26.957-07:00कुंभ-कथा.*<br />
(स्वतंत्रता के बाद पहले महाकुंभ के अवसर पर ऐसी अव्यवस्था हो गई कि भीड़ में अँधाधुंध भागदड़ मच गई और बहुत लोग गिर-गिर कर रौंदे जाते रहे -अधिकारी वर्ग पं. नेहरू के स्वागत में व्यस्त था.तब लिखी गई थी यह - कुंभ-कथा)<br />
*<br />
<br />
मानव के यह आँसू शायद सूख चलें पर ,<br />
मानवता के अश्रु-लिखित यह करुण कहानी अमर रहेगी !<br />
*<br />
स्वतंत्रता के बाद प्रथम ही ,महामृत्यु का निर्मम मेला ,<br />
जाने कौन पाप की छाया लाई महाकुंभ की बेला .<br />
गंगा-यमुना के संगम पर जीवन-मृत्यु गले मिलते थे .<br />
आँसू और रक्त की बूँदें लिए मानवी तन चलते थे .<br />
*<br />
जहाँ अमृत की बूँद गिरी थी वहीं मृत्यु का नृत्य हुआ था .<br />
तीर्थराज की पुण्य-भूमि में भक्ति भाव वीभत्स हुआ था ,<br />
घोर अमाँ की काली छाया, यह संगम श्मशान बना था,<br />
बच कर भागें कहाँ? पगों के आगे तो व्यवधान घना था .<br />
*<br />
गंग-यमुन धाराएँ बहतीं ,कहो सरस्वति ,स्वर सरिता बन<br />
इधर काल अपना मुँह बाए, उधऱ हो रहा था अभिनन्दन !<br />
खेल रही थी मृत्यु भाग्य की ओट लिए नर के प्राणों से<br />
जननायक के कर्ण बंद थे किन्तु वहीं स्वागत गानों से ,<br />
*<br />
उन भोगों में डूब कौन सुन पाता तट के आकुल- क्रन्दन !<br />
राग-रंग थे वहाँ दावतें उड़ती थीं ,उड़ते थे व्यंजन,<br />
अरी त्रिवेणी ,कहाँ बहा ले जाती तू यह रक्तिम धारा ,<br />
तीरथ व्रत का यही समापन ,किसके पापों का निपटारा .<br />
*<br />
तीर्थराज की पुण्य-भूमिपर जब-जब उमड़ेगा जन-सागर ,<br />
पुरा कथा की नयी वर्णना इसको किसका पाप कहेगी !<br />
मानवता के अश्रुलिखित ,यह करुण कहानी अमर रहेगी !<br />
<div>*</div>प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-55692634890078080432010-08-07T12:05:00.000-07:002013-02-27T17:24:36.282-08:00सूरज देर से निकला -<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
<br />
आज सूरज<br />
रोज से कुछ देर से निकला !<br />
लो ,तुम्हारी हो गई सच बात ,<br />
सूरज देर से निकला !<br />
*<br />
कुछ लगा ऐसा कि लम्बी हो गई है रात !<br />
और रुक सी गई ,<br />
तारों की चढी बारात .<br />
धीमी पड गई चलती हुई हर साँस<br />
सूरज देर से निकला !<br />
*<br />
घडी धीरे चल रही ,<br />
कुछ सोचता सा काल<br />
धर रहा है धरा पर हर पग सम्हाल-सम्हाल !<br />
बँधा किसकी बाँह में आकाश ,<br />
सूरज देर से निकला !<br />
*<br />
अर्ध-निद्रा या कि सपनों की कुहक- माया<br />
नेह भीगे मृदुल स्वर लोरी सुनाते थे ,<br />
अनसुने से गीत<br />
रह-रह गूँज जाते थे !<br />
हर नियम अलसा गया है आज<br />
सूरज देर से निकला !<br />
*<br />
देर तक अपना मुझे<br />
टेरा किया कोई !<br />
लगा सारी रात मैं<br />
बिल्कुल नहीं सोई !<br />
फिर कुहासा दृष्टि को बाँधे रहा ऐसा,<br />
कि सूरज देर से निकला !<br />
*<br />
<br /></div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-37276673953209489342010-07-24T21:49:00.000-07:002010-07-24T21:56:22.553-07:00बताओ क्या करोगे**<br />जब न मैं होऊ ,बताओ क्या करोगे १ <br />नए ढँग से ज़िन्दगी का हर पहाड़ा , <br />बहुत श्रम से सीखना होगा दुबारा <br />इसलिए कुछ धैर्य धर शुरुआत कर लो ,<br />भंग होगा क्रम जहाँ मेरा -तुम्हारा !<br />कौन समझेगा ,अकेले ही सहोगे !<br />*<br />मुझे अब कोई भनक लगने लगी है ,<br />कान में कुछ वंशियाँ बजने लगी हैं ,<br />दूर के कुछ स्वर सुनाई दे रहे हैं <br />देहरी हल्दी लगे अक्षत झरे हैं <br />हो रहा जो दोष किसके सर धरोगे <br />*<br />एक दिन भूले भटकते आ गए थे ,<br />लौटना ही नियति है फिर से वहीं पर !<br />सिर्फ़ अपने ही लिए जीवन नहीं है <br />दाँव हर पल लग सके जो खुश वही है<br />कौन समझेगा ,किसी से क्या कहोगे!<br />*<br />समय भी रुकता नहीं है बीतता है <br />और साँसों से भरा घट रीतता है .<br />एक दिन दुनिया समझना है स्वयं ही ,<br />भान अपना रहे अपने को स्वयं ही <br />साथ रह कर भी सभी से दूर होगे ,<br />*<br />यह निमंत्रण कौन अनदेखी सका कर ,<br />यह अकेली यात्रा है छोड़ कर घर <br />क्या पता कितना समय अब भी रहा है ,<br />पर समेटूँ जो बहुत बिखरा हुआ है /<br />बीच की इस अवधि को कैसे भरोगे !<br />*<br />जिन्दगी तो हर तरह जीनी पड़ेगी <br />सब बहाती काल की धारा रहेगी <br />कौन कब कर ले न जाने कौन सा रुख <br />यही निर्भरता बहुत देगी कभी दुख ,<br />इन्हीं लहरों में विवश हो कर बहोगे !<br /><br />किन्तु मैं भी क्या कहूँ इस मोड़ पर आ ,<br />समझना होगा कि अब तक जो न समझा .<br />आड़ अब कोई न होगा आसरा भी ,<br />यों अचानक ही बहुत घबराएगा जी <br />मार लोगे मन कि अनखाए रहोगे ,<br />*<br />और फिर भी चलेगा अविराम जीवन <br />किस तरह बीतें न जाने शेष के दिन !<br />कौन देखेगा कि तुम क्या चाहते हो ,<br />किस तरह मंझधार अपनी थाहते हो <br />भीड़ में भी एक सन्नाटा गहोगे !!<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-62358384654194904722010-07-01T21:37:00.000-07:002020-05-07T16:59:02.975-07:00कौन गति !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
कौन गति !<br />
एक नन्हीं-सी ज्योति !<br />
माटी में आँचल में अँकुआता बीज !<br />
काल -धारा में बहे जा रहे जीवन को <br />
निरंतरता की रज्जु में बाँधता,<br />
भंगुर-से तन में सँजोए नवनिर्माण कण <br />
काल से आँख मिलाती नव-जीवन रचती<br />
धरती या नारी ?<br />
*<br />
उस अंतर्निहित ज्योति का स्फोट <br />
दर्पण पर प्रतिवर्तित असह्य प्रकाश ! <br />
स्तबध काल-भुजंग अँधिया जाये <br />
अपना दाँव न चल सके <br />
तो तुम सहानुभूत या भय-भीत से <br />
बोल दिए - <br />
'नारी की छाया परत <br />
अंधा होत भुजंग !'<br />
*<br />
निःस्व समर्पण के क्षणों में <br />
बहुत भाती है न बहुरिया ?<br />
फिर मस्ती में डूबा मन ,और आहत अहं<br />
जब बिठा नहीं पाता संगति<br />
व्यवहार -जगत की वास्तविकताओं से<br />
परिणामों से दामन बचा <br />
बचते-भागते<br />
उसी पर दोष धरते, गरियाते , <br />
बन जाते हो ख़ुद <br />
राम की बहुरिया ! <br />
*<br />
सोचते रहते हो -<br />
'तिनकी कौन गति <br />
जे नित नारी संग?' <br />
सुनो कबीर,<br />
जिसमें सामर्थ्र्य होगी, भागेगा नहीं,<br />
अर्धांग में धारण कर <br />
बन जाएगा पूर्ण-पुरुष !<br />
निर्भय-निर्द्वंद्व !<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-48177636198288809082010-06-14T20:02:00.000-07:002010-06-14T20:03:53.040-07:00भइया का पत्रचिट्ठी के एक ही पृष्ठ से मैं पूरी गाथा पढ़ जाऊं ! <br /> नेह तुम्हारा पा ,जाने क्यों उमड़-उमड़ आता मेरा मन ,<br /> बड़े बंधु के आगे जगता ,छोटी सी बहिना का बचपन !<br />इस कमरे में जहाँ बैठ कर पढ़े जा रही तेरे आखर ,<br />हर कोने में लगता जैसे नया उजास छा गया आकर<br />जाने क्यों आँखें भऱ आईं कोई पूछे क्या समझाऊं ! <br />*<br />भले एक आभास मिला लगता तू सिर पर हाथ धर गया <br />तू न कहे पर अंतरतम तक पहुँचा भाव, अभाव भर गया !<br />कागज पर घुल बिखर गई पर वही इबारत उभरी उर पर ! <br />पढ़ना चाहा बार-बार हर बार नयन आये पर भर भर<br /> इतना रोदन उमड़ पड़ा ,आँचल भर आँसू कहाँ छिपाऊँ !<br />*<br />उदासीनताओं के झटके जहाँ कठिन कर गये हृदय-तल!<br />आज तुम्हारा स्नेह नयन में मेरे भर देता आँसू जल <br />कोई कमी नहीं फिर भी तो मन करता है तुझे पुकारूँ <br />तेरे नयनों में अपना वह पहलेवाला रूप निहारूं !<br />व्याकुल मन ही सुने न मेरी कैसे और किसे बतलाऊं !<br />*<br />इतने अश्रु बहाये सचमुच सारा मन का मैल धुल गया <br />और कंठ में आ अंतर की रुद्ध नदी का वेग खुल गया <br />भइया, आज तुम्हारी चिट्ठी हिला गई मन के तारों को ,<br />अब तो निभा लिये जाऊंगी ,दुनिया भर के व्यवहारों को <br />जिससे टिकी पढ़ रही कागज दीवारों को तिलक लगाऊँ !<br />*<br />भइया आज तुम्हारा ख़त पढ़ जाने कितना रोना आया ,<br />धन सा मन में धरे रही सब, कुछ न किसी को भी बतलाया <br />उस घर का थोड़ा-सा खाना ,शायद मुझको तृप्ति दिला दे , <br />और वहाँ थोड़ा रुक जाना , यह छाया अवसाद घटा दे !<br />थोड़ा सा आकाश वहाँ का अपने नयनों में भर लाऊं !<br />*<br />अपना यह घर, पर वह घर किस तरह पराया करके भूलूँ <br />बार-बार मन करता जाकर वही पुरानी देहरी छू लूँ !<br />भइया तेरे पावन मन का,और अहेतुक नेह-जतन का ,<br />इतना बल मिल गया कि सारा श्रम विश्राम पा गया मन का <br />आज तुम्हारी यह पाती ही शुभाशीष सी माथ चढ़ाऊं !<br />*<br />पूछेंगे सब लोग हुआ क्या मैं किस-किस को उत्तर दूंगी <br /> कभी किसी से बाँट न पाऊं उस मन को कैसे टोकूंगी <br />नाम तुम्हारा जब आयेगा काम-धाम सब पड़ा रहेगा <br />पूछो मत कुछ आज आयगा सारे दिन रह-रह कर रोना <br />जाने कब की रुकी रुलाई उमड़े कैसे बस कर पाऊँ !<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-83476069350457194302010-06-09T19:24:00.000-07:002017-02-02T16:17:00.577-08:00बहुत दिन हो गए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
बहुत दिन हो गए <br />
नदिया बड़ी संयत रही है .<br />
लहर के जाल में सब-कुछ समाए जा रही है .<br />
कहीं कुछ शेष बचता ,जमा बैठा जो तलों में .<br />
बहुत दिन से न जागा वेग <br />
मंथर वह रही बस <br />
प्रवाहित मौन सी चुपचाप धारा ,<br />
समेटे जाल सारे, डुबोए जल में समाए .<br />
कहीं बरसा न पानी ,हिम-शिखर पिघला न कोई <br />
उमड़ने दो बहुत दिन हो गए हैं ,<br />
समेटे क्यों नहीं पथ के विरोधों को,<br />
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए <br />
कहीं आगे .<br />
कगारें तोड़ कर लहरे समेंटें सब करें प्लावित <br />
बहुत दिन हो गए ,<br />
सभी कुछ देखते- रहते ,<br />
बहुतदिन हो गए ,यों एक सा बहते ,<br />
कहीं जो बाढ़ पानी में उमड़ आए .<br />
*<br />
नदी को बाँधना मत ,<br />
रोकना मत ,शाप है जल का <br />
बहुत कुछ तोड़ जाएगा ,<br />
सभी कुछ टूट बिखरे कुछ न छोड़ेगा ..बहा देगा <br />
तभी फिर देखना तटबंध सारे तोड़ते ढहते .<br />
कि हाहाकार के स्वर वेग में बहते <br />
लगे प्रतिबंध सारे मोड़ते अपनी तरह <br />
बस एक झटके से<br />
कगारों के बिना बढती नदी के वेग को चढते ,<br />
प्रलय का रूप धरने से कहो फिर कौन टोकेगा <br />
किसीमें दम कि चढ़ते पानियों का वेग रोकेगा <br />
किसी में दम उफनती बाढ़ का आवेग रोकेगा .<br />
बहुत दिन हो गए .<br />
*<br />
बहुत दिन हो गए <br />
<br />
चुपचाप है ,बहती हुई भी शान्त संयत सी ,<br />
कि गहरी घूर्णियों में घट रहा क्या कौन सोचेगा! <br />
बहुत दिन हो गए ये तट नहीं भीगे <br />
लहर कोई बहा दे रेत के डूहे ,<br />
बराबर कर सतह इकसार कर डाले ,<br />
तलों में जमी तलछट फिर निकल कर भूमि पर छाए ,<br />
जिन्हें कर चूर बिखराया विरोधों को ,<br />
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए कि<br />
कि वर्जित सीढ़ियाँ चढ़ते ,ढहाते पुल <br />
बढ़ी आगे चली जाए <br />
कि पानी ,ढूँढ लेता राह अपनी<br />
तोड़ बाधाएँ .<br />
*<br />
नदी के पाट मत देखो <br />
नदी के घाट मत रोको<br />
बहेगी मुक्त हो प्रतिबंध तोड़ेगी ,<br />
प्रवाहों मे बहाती हरहराती ,कुछ न छोड़ेगी .<br />
अगर फिर तुल गई,<br />
रुख धार मोड़ेगी<br />
युगों के बाद उन रीते कछारों को कभी देखो ,<br />
कभी नदिया रहे ,<br />
गहरे कगारों को जभी देखो<br />
किसी अन्याय का प्रतिफल समझ लेना ,<br />
नदी को दोष मत देना.<br />
*<br />
अभी तो शान्त बहने दो ,<br />
तरल जल स्वच्छ रहने हो ,<br />
अनादर और मनमानी नहीं सह पायगी नदिया <br />
अगर समझो इशारों में बहुत कह जायगी नदिया .<br />
समुन्दर की तरफ हर राह नदिया की ,<br />
रुकेगी क्यों ?<br />
बनाती रास्ता बढ़ जायगी नदिया.<br />
बहुत दिन हो गए .<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-18876197077675277832010-05-04T22:17:00.000-07:002013-02-27T17:30:27.832-08:00रत्ना की चाह -<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
केवल तुम्हारी थी <br />
थोड़ा-सा आत्म-तोष चाहता रहा था मन<br />
पीहर में पति- सुख पा इठलाती बाला बन <br />
मन में उछाह भर ताज़ा हो जाने का ,<br />
बार-बार आने का <br />
अवसर, <br />
सुहाग-सुख पाने का .<br />
*<br />
थोड़ा सा संयम ही <br />
चाहा था रत्ना ने ,<br />
भिंच न जाय मनःकाय <br />
थोड़ा अवकाश रहे,<br />
खुला-धुला ,घुटन रहित ,<br />
नूतन बन जाए<br />
पास आने की चाह .<br />
*<br />
कैसे थाह पाता <br />
विवश नारी का खीझा स्वर <br />
तुलसी ,तुम्हारा नर! <br />
स्वामी हो रहो सदा <br />
अधिकारों से समर्थ <br />
पति की यही तो शर्त !<br />
*<br />
सह न सके .<br />
त्याग गए कुंठा भऱ .<br />
सारा अनर्थ-दोष <br />
एकाकी नारी पर !</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-1870726937212023142010-04-29T22:52:00.000-07:002013-02-27T17:36:08.653-08:00चरैवेति'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
* ' <br />
यह संस्कृति का वट-वृक्ष पुरातन-चिरनूतन <br />
कह 'चरैवेति' जो सतत खोजता नए सत्य <br />
जड़ का विस्तार सुदूर माटियों को जोड़े <br />
निर्मल ,एकात्म चेतना का जीवन्त उत्स,<br />
*<br />
आधार बहुत दृढ़ है कि इसी की शाखाएँ <br />
मिट्टी में रुप कर स्वयं मूल बनती जातीं,<br />
जिसकी छाया में आर्त मनुजता शीतल हो <br />
चिन्ताधारा में नूतन स्वस्ति जगी पाती<br />
*<br />
इस ग्रहणशीलता पर संशय न उठे कोई <br />
हर फल में रूप धरे संभावित वृक्ष बीज<br />
वन-सागर पर्वत सहित कुटुंब धरा का हो,<br />
मानवता का आवास द्वीप औ' महाद्वीप !</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-12624982364246315562010-04-17T22:23:00.000-07:002013-02-27T18:50:17.704-08:00कबाड़खाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
*<br />
हर घर में <br />
कुछ कुठरियाँ या कोने होते हैं <br />
जहाँ फ़ालतू कबाड़ इकट्ठा रहता है ।<br />
मेरे मस्तिष्क के कुछ कोनो में भी<br />
ऐसा ही अँगड़-खंगड़ भरा है ।<br />
जब भी कुछ खोजने चलती हूँ <br />
तमाम फ़ालतू चीज़ें सामने आ जाती हैं ,<br />
उन्हीं को बार-बार ,<br />
देखने परखने में लीन <br />
भूल जाती हूँ<br />
कि क्या ढूँढने आई थी!<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-26809067405953639512010-04-13T22:14:00.000-07:002013-02-27T18:47:34.303-08:00केलिफ़ोर्निया का राज-पुष्प<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वन घासों के बीच <br />
झिलमिलाते इतने दीप !<br />
*<br />
इस निर्जन वन-खंडिका में <br />
संध्याकाश के नीचे <br />
कौन धर गया ?<br />
*<br />
क्रीक के दोनों ओर ,<br />
ढालों पर, निचाइयों में <br />
और हरी-भरी ऊँचाइयों पर भी . <br />
सघन श्यामलता में दीप्त होते <br />
चंचल हवा से अठखेलियाँ करते <br />
कितने -कितने दीप !<br />
*<br />
सुनहरी लौ के प्रतिबिंब <br />
तल की जल-धारा में बहते उतराते <br />
सीढ़ियों पर बिखर-बिखर <br />
लहरों के साथ बहते चले जा रहे <br />
इस विजन में फूले हैं अनगिनती <br />
सुनहरे पॉपी ,<br />
उजास बिखेरते इस एकान्त साँझ में !<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-87460383357750116892010-03-27T14:28:00.000-07:002018-05-22T11:41:36.778-07:00मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
स्वर मुझे दो ,मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ .<br />
*<br />
भाव में डूबे अगम्य अगाध होकर ,<br />
व्याप जाने दो हवाओं की छुअन में ,<br />
लहर में लिखती रहूँ जल वर्णमाला ,<br />
कौंध भऱ विद्युतलता के अनुरणन में <br />
कुहू घन अँधियार व्याप्त निशीथिनी में <br />
किसी संकल्पित सुकृत की पारणा हूँ <br />
*<br />
शंख की अनुगूँज का अटका हुआ स्वर <br />
घाटियों के गह्वरों में घूम-आए ,<br />
शिखऱ छू जब अंतरिक्षों में बिला ,<br />
आकाश गंगा के तटों को चूम आए <br />
बहुत लघु हूँ ,बहुत भंगुर हूँ भले ही ,<br />
पर किसी अपवाद की संभावना हूँ !<br />
*<br />
घंटियाँ बजने लगी हैं शिखर पर अब , <br />
लौ कपूरी डालती फेरे चतुर्दिक्,<br />
लहर में झंकारते अविरल मँजीरे <br />
आरती का ताप हो जाता समर्पित ,<br />
जन्म फेरा बन भले ही रह गया ,<br />
चिर-काल की पर मैं निरंतर साधना हूँ !<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-42096393286097577062010-03-17T22:03:00.000-07:002013-02-27T17:31:57.210-08:00संदर्भहीन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक पुरानी कविता -<br />
<br />
सपनों जैसे नयनों में झलक दिखा जाते <br />
कैसे होंगे सरिता तट, वे झाऊ के वन !<br />
*<br />
घासों के नन्हें फूल उगे होंगे तट पर ,<br />
रेतियाँ कसमसा पग तल सहलाती होंगी <br />
वन-घासों को थिरकन से भरती मंद हवा ,<br />
नन्हीं-नन्हीं पाँखुरियाँ बिखराती होगी <br />
जल का उद्दाम प्रवाह अभी वैसा ही है ,<br />
या समा गया तल तक आ कोई खालीपन !<br />
*<br />
जिन पर काँटों की बाड़ अड़ी थी पहले से ,<br />
वर्जित उन कुंजों में कोई पहुँचा है क्या .<br />
संदर्भहीन कर देता सारे ही नाते .<br />
धीमे से कानों तक आता कोई स्वर क्या<br />
क्या बाँस वनों में पवन फूँकता है वंशी ,<br />
रातों में रास रचाता क्या मन-वृंदावन !<br />
*<br />
ढलते सूरज की किरणें लहरों में हिलमिल ,<br />
जब जल के तल में रचें झिलमिली राँगोली, <br />
शिखरों पर बिखरी रहें सुनहरी संध्यायें<br />
झुनझुना बना दे तरुओं को खगकुल टोली <br />
लहरों का तट तक आना ,और बिखर जाना <br />
कर जाता मन को अब भी वैसा ही उन्मन!<br />
*<br />
क्या वर्तमान से कभी परे हो जाते हो <br />
बेमानी लगने लगता सारा किया धरा ,<br />
सब कुछ पाने बाद कभी ऐसा लगता ,<br />
कुछ छूट गया है कहीं, रह गया बिन सँवरा. <br />
मन पूरी तरह डूब पाता क्या रंगों में , <br />
यह भी सच-सच बतला दो अब कैसे हो तुम !<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-69843916641066001712010-02-28T23:06:00.000-08:002013-02-27T18:56:48.312-08:00प्रश्न<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब अपने से छोटे <br />
और उनसे भी छोटे <br />
रुख़सत हो <br />
निकलते चले जाते हैं सामने से<br />
एक-एक कर ,<br />
अपना जीवन अपराध लगता है .<br />
*<br />
जब वंचित रह जाते हैं लोग,<br />
उस सबसे जो हमने पाया ,<br />
तरसते देख गुनाह लगती हैं <br />
अपनी सुख-सुविधायें कि दूसरे का हिस्सा <br />
हम अब भी दबाये बैठे हैं .<br />
अपनी सारी क्षमताये बेकार <br />
कि अब कौन सी सार्थकता बाकी रह गई ?<br />
*<br />
भाग्यशाली हैं वे ,<br />
जो जीवन-मृत्यु को <br />
सही सम्मान दे ,<br />
समय से प्रस्थान कर जाते हैं .<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-17872079271305728872010-02-28T10:38:00.000-08:002010-02-28T14:17:03.950-08:00कितना सुन्दरकितना सुन्दर है ये जीवन ,मेरे मन !<br />*<br />घूम के आतीं जो ऋतुओं के साये <br />पत्ते उड़ाती भागती हवाये ,<br />कभी बरसात कभी धूप की तपन <br />*<br />घेरे हुये घरती गगन की बाहें .<br />चूमती पग-पग बढ़ती हुई राहें <br />साथ में चले जो कोई हो मगन !<br />*<br />कहीं कंकरों के दाँव पाँवों तले <br />नर्म माटी की छुअन भी मिले <br />कभी हँसी खिले कभी मिले यहां गम !<br />*<br />चला आता हँसता त्यौहार का मौसम .<br /> पतझर आया आयगा बहार का मौसम <br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-19370838908750301522010-01-23T21:43:00.000-08:002010-01-23T21:45:19.090-08:00लौट चल रेलौट चल रे मन ,उसी फिर कटघरे में , <br />फिर वहीं के एक खाँचे में समाने , <br />उसी चक्कर में निरंतर घूमने को , <br />जो कहीं भी ले न जाये कुछ बताने , <br />*<br />पुरातन वटवृक्ष जिसकी छाँह में ,<br />लिक्खा उधारों का रहा जो ब्याज बाकी <br />कौन जाने कौन चुकता कर गया है ,<br />कौन ले कर भार बैठा मूल का भी<br />लौट चल रे ,यहां रोकेगा न कोई , <br />स्वयं से कैसे करेगा अब बहाने !<br />*<br />ज्यों पिता का प्यार पुत्री को बिदा दे ,<br />डालियां हिलती हुई आशीष जैसी ,<br />सघन पत्तों से छलक कर तरलतायें <br />उस झुके से शीष को अभिषेक देतीं <br />क्या पता कब कौन लौटेगा यहां पर <br />एक दूजे की कथा सुनने-सुनाने<br />*<br />लाभ हानि विचारने का सुध नहीं क्यों <br />जब निभाना हैं यहाँ के सभी धंधे<br />काल के कुछ दंश तीखे हैं बहुत <br />पर जी रहे है अभी तक तो भले चंगे <br />बुढ़ापे को याद हैं अपना ज़माने <br />और यौवन के निराले ही फ़साने<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-44227707745879196372010-01-18T18:01:00.000-08:002010-01-18T18:05:20.419-08:00प्रस्थान -जब अपने से छोटे <br />और उनसे भी छोटे <br />रुख़सत हो <br />निकलते चले जाते हैं सामने से<br />एक-एक कर ,<br />अपना जीवन अपराध लगता है .<br />जब वंचित रह जाते हैं लोग,<br />उस सबसे जो हमने पाया ,<br />तरसते देख गुनाह लगती हैं <br />अपनी सुख-सुविधायें कि दूसरे का हिस्सा <br />हम अब भी दबाये बैठे हैं .<br />अपनी सारी क्षमताये बेकार <br />कि अब कौन सी सार्थकता बाकी रह गई ?<br />भाग्यशाली हैं वे ,<br />जो जीवन-मृत्यु को <br />सही सम्मान दे ,<br />समय से प्रस्थान कर जाते हैं .<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-34631371890784129222010-01-16T15:38:00.000-08:002010-01-16T15:39:44.315-08:00चलो कहीं निकल चलें!<br />बस्ती से दूर किसी जंगल मे टहल चलें !<br />खिले-खिले मुक्त मन लपेटलाग छोड सभी ,<br />खिल-खिल हँसी से भरी मनचाही बातें हों !<br />अपनी बेवकूफियाँ सुनाएं - सुने मुक्तमन ,<br />किसी और नई जगह निकल चलें-सैर करें !<br />*<br />नदिया के तीर बैठ लहरों की बनन - मिटन ,<br />फिसलती बालू से सीप-शंख बीनेगे ,<br />बीती सो बात गई ,रीति-नीति सारी <br />बेमानी हो छूट गई !<br />सारे ये झंझट अब यहीं छोड़ निकल चलें !<br />*<br />.टेरना बेकार ,गुनगुनाता चल अकेला मन ,<br />प्रात कहीं होगा और रात कहीं बीतेगी ,<br />अपने काम का हो जो ,समेटने को क्या धरा,<br />फेन बुलबुलों से भरी प्याली तो रीतेगी !<br />कहे-सुने बिना ,अनायास उठ निकल चलें !<br />चलो कहीं निकल चलें !<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-79464333631429567362010-01-13T23:00:00.000-08:002013-02-28T10:56:20.726-08:00ले चलो उन निर्जनों में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में ,<br />
किसी पग की चाप से आगे वनों में<br />
ले चलो उस तट बिना पहचानवाले ,<br />
जहां कोई आ नहीं पाये पता ले <br />
*<br />
जिस जगह ,संध्या-सुबह चुपचाप आयें ,<br />
रात्रियाँ आ मौन ही फिर लौट जायें ,<br />
जहाँ कोई प्रश्न उठ पाये न आगे ,<br />
जिस जगह ,बस मौन का ही राग जागे <br />
*<br />
चलो अब कुछ काल वहीं व्यतीत कर लें <br />
यहँ से कुछ भी बताये बिन निकल लें <br />
दूर इतनी यहाँ की किरणे न आयें <br />
यहाँ की यादें वहाँ तक जा न पायें <br />
*<br />
पार सबको कर चलो ऐसी दिशा में ,<br />
इन तटों से दूर हो कुछ दिन बिताने <br />
ले चलो उस ओर कोई द्वीप होगा ,<br />
वहाँ से आकाश बहुत समीप होगा .<br />
*<br />
चलो मेरे साथ चाहे लौट आना ,<br />
यहँ से बस कर चलो कोई बहाना <br />
ले चलो उन दूरियों तक जहां कोई भी न जाये <br />
या कि उन गहराइयों में जहाँ कोई डूब जाये <br />
*<br />
चलो माँझी उघर के शीतल घनों में <br />
आज माँझी ले चलो उन निर्जनों में .<br />
*</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-16635478093173592952010-01-02T22:07:00.000-08:002013-02-27T17:34:34.881-08:00एक जनम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुक्ति नहीं,<br />
एक जनम ,<br />
मगन मगन !<br />
*<br />
तन्मय विशेष <br />
कुछ न शेष <br />
पूर्ण लीन <br />
मात्र अनुरक्ति <br />
हो असीम तृप्ति <br />
सिक्त मन-गगन<br />
एक जनम ,<br />
*<br />
धरा हो ऋतंभरा ,<br />
जीवन संतृप्ति भरा <br />
तन ,मन विभोर <br />
निरखें दृग कोर ,<br />
मेघ वन सघन .<br />
एक जनम<br />
*<br />
मुक्ति नहीं,<br />
हो अनन्त राग ,<br />
विरहित विराग <br />
लहर-लहर दीप ,<br />
सिहर-सिहर प्रीत<br />
नृत्यरत किरन<br />
एक जनम <br />
*<br />
भर-पुरे अस्त उदय <br />
भाव-भेद शमित,<br />
परम तोष <br />
शमित ताप <br />
स्निग्ध दीप्तिमय गगन. <br />
एक जनम ,<br />
*<br />
मुक्ति नहीं ,<br />
परम परिपूर्ण मगन,<br />
लघु भले कि लघुत्तम <br />
एक जनम.<br />
जनम-जनम की मिटे थकन <br />
एक जनम .</div>
प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7110775661533879329.post-23153692086094266392009-12-26T14:54:00.000-08:002009-12-26T14:57:07.276-08:00नव वर्ष हेतु शुभ-कामनाएँनये वर्ष की ,कुछ नई कामनायें <br />हमारी तरफ़ से नज़र हैं तुम्हारी ,<br />सभी शुभ-वचन हों फलीभूत ,<br />सब में नया राग आनन्द पूरित जगायें ,<br />मधुर प्रीत-पूरित पुलकता सँदेशा <br />तुम्हारे लिये हर नई भोर लाये .<br />*<br />नवोत्साह पूरित नवाशा लिये <br />एक विश्वास नूतन सदा सँग रहे <br />फिर नयी स्वर-किरण यों उजाला भरे <br />औ' पुरानी उदासी किसी पर न छाये ,<br />नये स्वर्ण-युग का शुभारंभ देखे ,<br />सुमति -शान्ति भर प्रिय-धरा ये हमारी !<br />*प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.com1