तुम्हें लहर पुकारती ,कि आँधियाँ दुलारतीं ,
सहस्र फन उठा-उठा अपार नीर गोद से ,
सतृष्ण दृष्टि से तुम्हें अमां निशा निहारती !
तुम्हें लहर पुकारती !
गये न सिन्धु गोद में ,न कँप उठें कहीं चरण ,
न हिल उठे कहीं धरा ,न हँस उठे कहीं गगन !
न क्षुब्ध हो उठे हृदय सिहर उठे कहीं न मन !
सिसक रही दिशा दिशा ,सिहर रही महानिशा ,
पवन विक्षुब्ध घूमता
कि कालिमा विध्वंस के सिंगार को सँवारती !
*
उठी महान् गर्जना कि ओर-छोर हिल गये !
क्षितिज न दिख सका कहीं ,धरा गन ,सिमट गये !
छिपीं कहीं उषा-निशा
उतर गया सभी नशा
न आज भेद रह सका ,
विराट् शून्य गोद में तमिस्र जाल तानती !
*
न भय करो कि आ गई ,
यहाँ विनास की घडी !
यहाँ सतत सँघर्ष से नहीं विजय अधिक बडी !
कि तू न हार मान, लब्धि है यही महा बडी !
क्षणिक पराजयें सभी ,
असत्य सुख-दुःख भी ,
अनित्य पुण्य-पाप भी ,
कि जिन्दगी की राह तो इन्हं नहीं विचारती !
तुम्हें लहर पुकारती !
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
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