गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

तुम अचिर मधुमास की..

तुम अचिर मधुमास की पहली सुहागिन,
क्यों न जाने कुँज-वन मे कूकती रहतीं अकेली !
*
लाल फूलों का सुभग सिन्दूर लेकर ,
आगया ऋतुराज तेरे ही वरण को,
नवल पल्लव की सुकोमल अँगुलियों ने
रचे तोरण और बन्दनवार तेरे आगमन को,
घन्ध-भारित पुष्प-केशर ने तुम्हारा पथ सँजोया,
तुम्हें जीवनभर मिला नव-राग फिर भी
क्या न जाने बूझती रहतीं अकेली !
*
शिशिर का हिम और आतप- ताप वर्षा की झडी भी
आ नहीं पाते कभी तेरे बरस मे,
सहसहाते कुँज बौराये तुम्हारी कूक सुन ,
उडती नहीं है धूल भी तेरे हरष मे ,
किन्तु तुम होकर सभी से भिन्न ,गहरी पत्तियों के
सघन छाया-वनों मे ही डूबती रहतीं अकेली !
*
है निराला रंग सबसे ही तुम्हारा .
ये वसन्ती-वायु क्या तुमको न छू पाती कभी भी
क्या तुम्हारे तिमिर से उस श्याम तन में ,एक भी
आलोक की, अनुराग की रेखा महीं आती कभी भी ?
एक गुँजन से भरी वन-वीथियाँ जिन पर चलीं तुम,
तुम अमर मधु-मास भोगी,क्यों न जाने कूकती रहतीं अकेली !
*
तुम सुखों की हूक बन कर कूक उठतीं ,
ओ मुखर एकान्त की व्याकुल निवासिनि ,
तुम मिलन के मधु प्रहर मे भी अकेली ,
प्यार के पहले क्षणो मे भी विरागिन ,
सुख-सुरभि-सौंदर्य के नीरव जगत में ढाल देतीं
मर्मस्पर्शी मधुर स्वर-लहरी रुपहली !
*

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

आवारा शब्द

प्रेम ,प्यार ,मोहब्बत ,
(बडे भडकीले हो गये हैं )
अब मंचपर मचलते ,अदायें दिखाते
सडकों पर आवारा घूमते ,
घरों की छतों ,छज्जों खिडकियों से
अपनी दमक दिखा जाते हैं !
अब तो रेलों ,बसों और स्कूटरों पर इनके ,
खुल कर दर्शन होते हैं !

हाई स्कूल से लेकर
बडे बडे कॉलेजों में तो भरमार है !
चुस्त ,बढिया, पारदर्शी कपडे पहने ,
इनकी बाँकी अदा
विज्ञापनों मे देखते ही बनती है !
अब ये बडे आवारा हो गये हैं ,
घरों में दुबके रहने का ,भीरु स्वभाव छोड कर
सरे आम बाजारों में
निकल पडे हैं !

बच्चा

नन्हा सा बच्चा ,
सब देखता है ,सुनता है ,
बोलता कुछ नहीं !

हमारे सारे क्रिया -कलाप ,
देखता रहता है ध्यान से ,
दृष्टि बड़ी गहरी, पहुँच जाती है तल तक ,
हम जो नहीं समझते ग्रहण कर लेता है !

पूजा के उपकरण सजाए गए ,देवता की प्रतिष्ठा हुई ,
धूप -दीप-नैवेद्य ,फूल, आरती, स्तुति !
वह मगन मन देखता रहा !
दोनो नन्हे-नन्हे हाथ जोड़कर प्रणाम करवाया ,
"जै करो ,बेटा !"

अभिभूत था बच्चा !
अब तो राहों मे चौबारों मे ,
दूकानो मे ,बाज़ारों मे ,
जहाँ भी सौन्दर्य और आनन्द पाता है ,
तुरंत दोनो हाथ जोड़कर "जै" कर लेता है ।

सुरभि -चन्दना

उल्लास की लहर सी
आ गई तू !
*
मेरे मौन प्रहरों को मुखर करने !
दूध के टूटे दाँतों के अंतराल से अनायास झरती
हँसी की उजास बिखेरती ,
सुरभि-चन्दना , परी सी ,
मोहिनी डालती आ गई तू !
*
देख रही थी मैं खिड़की से बाहर -
तप्त ,रिक्त आकाश को ,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू !
सरस फुहार -सी झरने
उत्सुक चितवन ले !
आ गई तू ,
*
चुप पड़े कमरे बोल उठे ,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने ,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं !
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अनदर की ओर !
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में ,
आ गई तू !
*
सहज स्नेह का विश्वास ले ,
मुझे गौरवान्वित करने !
इस शान्त -प्रहर में ,
उज्जवल रेखाओं से राँगोली रचने ,
रीते आँगन में !
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर ,
आ गई तू !
*
सुरभि-चन्दना-परी सी ,
मोहिनी डालती आ गई तू !
*

हिमालय ने बुलाया है

हिमालय ने बुलाया है जवानी को निमंत्रण दे ,
हमारे देश पर फिर दुष्मनो ने आँख डाली है !
किसी के हाथ में हँसिया ,किसी के हाथ में हल है ,
किसी के लौह हाथों में बहुत सजती दुनाली है !
*
कि हमने तो यहाँ पर दोस्ती के ख्वाब देखे थे ,
मगर उनने हमारे शान्त हिमगिरि को जगाया है !
सुनो आवाज देती हैं हमारे देश की नदियाँ ,
जननि के दूध की धारें ,जिन्होंने पय पिलाया है !
*
बढो,ओ रे ,जवानी के महकते से नये फूलों ,
इरादा दुष्मनों का है उन्हें नापाक करने का !
कि अब इतिहास दुनिया का हमेशा याद रक्खेगा ,
जमाना है नहीं अब तो कहीं विश्वास करने का !
सुनो आवाज गंगा की ,सुनो आवाज यमुना की ,
अरे कृष्णा औ'कावेरी तुम्हारी अब जरूरत है !
*
अरी गोदावरी ,धीरे न बह ,तट को जगा दे तू
,बता दे और इनको अब ,विजय का ये मुहूरत है !
हिमालय ने निंमंत्रण दे दिया विंध्या ,अरावलि को ,
कि ओ रे नीलगिरि ,तू उठ खडा हो ,शंख -ध्वनि घहरा !
*
हमारा देश ,अपनी भूमि ,नदियाँ और अपने वन ,
धरा के पुत्र जागो ,और दो चिर जाग कर पहरा !
हिमालय ने बुलाया है !
*

लहर पुकारती

तुम्हें लहर पुकारती ,कि आँधियाँ दुलारतीं ,
सहस्र फन उठा-उठा अपार नीर गोद से ,
सतृष्ण दृष्टि से तुम्हें अमां निशा निहारती !
तुम्हें लहर पुकारती !

गये न सिन्धु गोद में ,न कँप उठें कहीं चरण ,
न हिल उठे कहीं धरा ,न हँस उठे कहीं गगन !
न क्षुब्ध हो उठे हृदय सिहर उठे कहीं न मन !
सिसक रही दिशा दिशा ,सिहर रही महानिशा ,
पवन विक्षुब्ध घूमता
कि कालिमा विध्वंस के सिंगार को सँवारती !
*
उठी महान् गर्जना कि ओर-छोर हिल गये !
क्षितिज न दिख सका कहीं ,धरा गन ,सिमट गये !
छिपीं कहीं उषा-निशा
उतर गया सभी नशा
न आज भेद रह सका ,
विराट् शून्य गोद में तमिस्र जाल तानती !
*
न भय करो कि आ गई ,
यहाँ विनास की घडी !
यहाँ सतत सँघर्ष से नहीं विजय अधिक बडी !
कि तू न हार मान, लब्धि है यही महा बडी !
क्षणिक पराजयें सभी ,
असत्य सुख-दुःख भी ,
अनित्य पुण्य-पाप भी ,
कि जिन्दगी की राह तो इन्हं नहीं विचारती !
तुम्हें लहर पुकारती !

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

हमारे साथ आ जाओ

*
मनुज के सुयश की गाथा,यहीं पर रुक नहीं जाये,
विषमतायें हटा कर विश्व भर में शान्ति लाना है !
धरा के महाद्वीपों,सिन्धुतट,अक्षाँश,देशान्तर ,
हमारे साथ आ जाओ,मनुजता को बचाना है !
*
बचेगी अस्मिता जब एकजुट हो कर खड़े होंगे ,
सुनो भूमध्य-तट,अफ़्रीकियों ओ,एशियावालों ,
उठा लो हाथ में भूगोल ,फिर नूतन क्षितिज ढूँढें ,
नये पन्ने लिखें इतिहास में उजले हरफ़वाले !
हमें तो जूझना है ,दुख ,अभावों और रोगों से
यहाँ विज्ञान को कल्याण का साधन बनाना है !
*
जहाँ पर नफ़रतों के सबक ले बचपन बिदा होता,
जहाँ रिश्ते सभी हैवानियत की भेंट चढ़ जायें!
जहाँ इन्सान से इन्सान रिश्ता नहीं बनता,
मनुज की देह को बारूद पहना मौत बरसायें!
न बैठे चैन से ये बैठने ,देंगे न दुनिया को ,
उन्हीं गद्दार लोगों से धरा अपनी बचाना है !
*
जिन्हें निज जन्म-भू की वंदना भी कुफ़्र लगती हो ,
कहो उनसे कि जाकर आसमानों में रहें वे सब !
कि उन परजीवियों का बोझ कब तक धरा झेलेगी,
यहां का अन्न-जल ऐसे कृतघ्नों को न पाले अब!
निरंतर घूमता गोला जिसे दुनिया कहा जाता,
शिखर से दे रही आवाज़ मन का सच जगाना है !
*
कँवारी देह की शुचिता जिन्हें बर्दाश्त ही ना हो ,
कि जिनका पशु-सुखों के हेतु नारी देह से नाता ,
कि सहचरि क्या,न इसका अर्थ जाना ही न हो जिनने ,
दमन नारीत्व का हर पग जहाँ पुरुषत्व कहलाता !
जगत की नारियों जीवन-फ़सल कुत्सित न हो जाये ,
कि अपनी कोख को सारी विकृतियों से बचाना है !
*
तुम्हीं ने प्रेम को जीवन दिया औ शिशु बना पाला ,
तुम्हीं ने ज़िन्दगी की धार को अविरल बहाया है !
तुम्हारी सृष्टि है,दायित्व लो इसको बचाने का,
जगत सामर्थ्य तो देखे कि मौका आज आया है !
हमारे पुत्र कन्यायें भविष्यत् की धरोहर हैं ,
धरा का और माटी का हमें यों ऋण चुकाना है!
*
कलाओँ और विद्या-संस्कृति की निधि न लुट जाये,
सभी निर्माण अपने एकजुट होकर बचा लें हम !
हमारी चेतना के स्वर प्रखरतर हो यहाँ गूँजें,
यहाँ अविवेक ,पशुता मूढ़ता को ध्वस्त कर दें हम !
कि अविरल धार जीवन की सदा निर्मल प्रवाहित हो ,
रहे वसुधा कुटुंब बन कर हमें यह कर दिखाना है !
*
धरा के महाद्वीपों ,सिन्धुतट,अक्षांश,देशान्तर ,
हमारे साथ आ जाओ ,मनुजता को बचाना है !
हमारे साथ आजाओ ,हमारे साथ आ जाओ ,
मनुजता को बचाना है!
*

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

चिनार के पत्ते

*
उड़ आए तूफ़ानी हवाओं के साथ ,
चिनार के ये पत्ते !
बर्फ़ की सफ़ेद चादर पर जगह -जगह
ख़ून के धब्बे!
उसी लहू के कुछ छींटे, कुछ लिख गए हैं इन पर भी !
मोती-जड़ी नीलम - घाटी मे उगे थे कभी
बारूदी धुएँ से झुलसे ,उड़ रहे हैं सब तरफ़
उन्ही चिनारों के पते !
ऋतुएँ बदलेंगी ,बर्फ़ पिघलेगी ,
पर यह ख़ून कभी नहीं पिघलेगा ,
युवा हृदय की तमाम हसरतें , जीवन के सतरंगी सपने सँजोये
यह ऐसा ही जमा रहेगा इस धरती पर!
जिनने सींचा है इस धरती को अपने गर्म लोहू से ,
कि आश्वस्त रहें हम सब !
उनके नाम लिख दो इस धरती पर ,
यही सँदेशा लाये हैं ये चिनार के पत्ते!
*
अब बारी तुम्हारी है
कि लहू के ये धब्बे ,
लाल फूल बन सुवास भर दें साँसों में
जब लौट कर वे आयें यहाँ !
इस धरती पर बिखरे उनके सपने साकार हो सकें ,
जिम्मेदारी अब तुम्हारी है -
कह रहे हैं ये चिनार के पत्ते !
सिर से छुआ लो ,हृदय से लगा लो -
इनने देखा है वह जिसे सुनकर दुख भी पथरा जाये!
यही एहसास जगाने आये हैं ये चिनार के पत्ते!
उड़ आये तूफ़ानी हवाओं के साथ ,
ये चिनार के पत्ते !
*

अपराधी

*
बिगाड़ना बहुत आसान है -
उसके लिये , जो बना नहीं सकता !
पशुबल सबसे प्रबल है , कि विवेक से नाता नहीं रखता ,!
जुनून जो कर ड़ाले , भविष्य पछताता है जीवन भर !
पर यह देख कर भी जो तटस्थ बना रहे, सबसे बड़ा अपराधी है !
इस धरती के स्वर्ग ,
दुख तो यह है कि तुझे दग़ा दिया अपनो ने !
तेरी ही बेटियों का रास्ता बन्द कर ,
जीवन भर को वञ्चित कर दिया तेरी नेह भरी गोद से !
लुटे-पिटे ,वञ्चित तेरे पुत्र ,दर-दर ठोकरें खाते भटक रहे हैं !
इन द्विधाग्रस्त लोगों ने ,अपनो को निकाल,
पराई घुस-पैठ का रास्ता साफ़ कर दिया !
*
माँ के जवान बेटों ने अपने प्राणों का मोल दे
जो जीता था ,ये दब्बू ,स्वार्थी ,कृतघ्न प्राणी ,
थाली मे परोस उन्हीं हत्यारों को पेश कर आये -
कि लो यह खून फ़ालतू है , बहता रहे क्या फ़र्क पड़ता है ?
सब चौपट कर दिया !
माँ की छाती मे घूँसा मार ,एक स्थायी दर्द दे दिया,
एक रिसता घाव जो हमेशा टीसता रहेगा !
अगली पीढ़ियाँ क्या माफ़ कर सकेंगी कभी ?
*

शब्द ही हैं मन्त्र

*
झील मे वे हंस से तिरते शिकारे ,
अप्सराएं, नाव फूलों से सँवारे १
*
घाटियों मे भर कुहासा कुहुक पढ़ती
एक माया-लोक की रचना अनोखी ,
रंग-पूरित ,गंध-वासित जुगनुओं से टाँक
पट झीना , धरा - नभ को मिलाती !
हिम - कणों युत हरित-वसना ,
मोतियों से जड़ा पन्ना,
सिहरते केशर -पुलक में रेशमी सन्ध्या-सकारे !
*
जहाँ जीवन था बना भारी समस्या,
सतीसर जलराशि ,कश्यप की तपस्या,
प्रतिफलित इस रम्य धरती में हुआ ,
कश्मीर रूपायित रुचिर स्वार्गिक जगत सा !
रचा विल्हण ने यहाँ इतिहास पहला ,
नाम झेलम की तरंगों पर दिया रे !
*
शाक्त-शैवों-सूफ़ियों के गूँजते स्वर ,
और ललितादित्य का मार्तण्ड मन्दिर ,
प्रति प्रहर नव-रंग मे क्षीरा भवानी
नागअर्जुन बोधिसत्व हुए यहीं पर !
बाल हज़रत के सुरक्षित रख सका जो
प्रेम, करुणा औ" शुभाशंसा सहारे !
*
मनुज-संस्कृति-स्वर्ण को कुन्दन बनाती ,
बंग से गान्धार तक को जा मिलाती,
भारती के वरद पुत्रों की सुचिन्ता ,
चीन औ"जापान तक को जगमगाती ,
सुचित होकर शान्त चिन्तन को जहाँपर ,
विश्व-पीड़ा-भार व्याकुल स्वयं प्रभु ईसा पधारे !
*
एक झोंका बर्बरों की पाशवी उन्मत्तता का
टूट बिखरीं सहस्रों संवत्सरों की साधनायें ,
उस समृद्ध अतीत से वंचित भविष्य हुआ सदा को
धूल बन कर उड़ गईं यों विश्व की आकाँक्षायें !
सूर्य-किरणें ताप खो होतीं सुशीतल सौम्यता भर ,
उसी धरती पर बिछे पग-पग अँगारे !
*
मान लो यह ,मानना होगा किसी दिन,
विश्व-मंगल हेतु उपजे धर्म सारे !
धर्म भाषा रहे कोई,शब्द जो शिव और सुन्दर ,
शारदा वागीश्वरी की वन्दना के मन्त्र सारे !
*

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

शिशु

लो , अथाह भविष्य का एक निमिष
आ गया मेरे पास !
हाँ,आगत स्वयं बढ कर समा गया मेरी बाहों में !
*
यह शिशु,अपनी नन्ही मुट्ठियों मे ,
कसकर बाँधे है सारा भविष्य !
''मेरे शिशु ,क्या ले कर आए हो इस मुट्ठी में ?"
और मुंदी कली- सी अँगुलियाँ खोलना चाहती हूं ,
वह कस कर भींच लेता है !
*
हँस पढती हूं मैं -
कहाँ कोई देख पाया है आगत को ?
टक-टक देखता रहता है वह ,
अपनी गहन विचारपूर्ण दृष्टि से !
निस्पृह , निर्लिप्त , निर्दोष !
*
हमारी समझ से परे ,
रहस्यमय दृष्यों में खोया -
कभी रुआँसा ,कभी शान्त ,
कभी उज्ज्वल हँसी से आलोकित होता मुखमणडल!
*
और हम सारे काम - धन्धे छोड दौड पडते हैं ,
उस भुवन - मोहिनी मुस्कान को निहारने ,
उस दीप्त मुख के आनन्द-विभोर क्षण की आकांक्षा में !
*
जीवन को पढ़ने का ,मगन मन गढ़ने का ,
आगत को रचने के स्वर्णिम क्षण जीने का ,
मिला है अवसर -
लोरियाँ सुनाने का ,मुग्ध हँसी हँसने का !
*
हो जाऊँ चाहे अतीत ,
मै ही रहूंगी व्याप्त ,
अनगिन इन रूपों मे ,
सांसों मे सपनो मे !
*
मेरी ही चेतना की व्याप्ति यहाँ से वहाँ तक !
रोशनी का कण आँखों मे समा गया ,
जिसने उद्भासित कर दिया दिग् - दिगन्त को !
*

पुत्र-वधू से

द्वार खडा हरसिंगार
फूल बरसाता है तुम्हारे स्वागत मे ,
पधारो प्रिय पुत्र- वधू !
*
ममता की भेंट लिए खडी हूँ कब से ,
सुनने को तुम्हारे मृदु पगों की रुनझुन !
सुहाग रचे चरण तुम्हारे , ओ कुल- लक्ष्मी ,
आएँगे चह देहरी पार कर सदा निवास करने यहाँ ,
श्री-सुख-समृद्धि बिखेरते हुए !
*
जो मै थी , तुम हो ,
जो कुछ मेरा है तुम्हे अर्पित !
ग्रहण करो आँचल पसार कर ,प्रिय वधू ,
समय के झंझावातों से बचा लाई हूं जो ,
अपने आँचल की ओट दे ,
सौंपती हूँ तुम्हे -
उजाले की परंपरा !
*
ले जाना है तुम्हे
और उज्ज्वल ,और प्रखर ,और ज्योतिर्मय बनाकर
कि बाट जोहती हैं अगली पीढियाँ !
मेरी प्रिय वधू ,आओ
तुम्हारे सिन्दूर की छाया से
अपना चह संसार और अनुरागमय हो उठे !
*

अभिशप्त

रात का धुँधलका , सिर्फ़ तारो. की छाँह !

मैने देखा --
मन्दिर से निकल कर एक छायामूर्ति
चली जा रही है विजन वन की ओर !
आश्चर्य-चकित मैने पूछा ,
' देवि ,आप कौनहैं ?
रात्रि के इस सुनसान प्रहर मे ,
अकेली कहाँ जा रही हैं ?'
*
वह चौंक गई ,कुछ रुकी बोली ,
' मै जा रही हूँ राम के वामांग से उठ कर ,
चिर दिन के लिए ,
क्योंकि विश्वास और सत्य प्रमाण - सापेक्ष नहीं होते !
चेतनामयी नारी का स्थान
जहाँ ले ले सोने की मूरत ,
मर्यादा का यह आचार ,
मै , वैदेही की चेतना- छाया ,
जड़ -सी देखती रह गई !
अब मै जा रही हूँ सदा-सदा के लिये !
*
'अब ?इतने समय बाद ? आज ? "
मेरे मुँह से निकल पड़ा !
वह उदास सी मुस्कराई -
'तुम आज देख पाई हो !
मै तो जा चुकी शताब्दियों पहले ,
सरयू अपार जल-राशि बहा चुकी है तब से ,
श्री-हत अयोध्या अभिशप्त है तभी से !'
*

गीत समर्पित

मिला न जिनको स्नेह किसी का ,उनको मोरे गीत समर्पित !
भँवर डालता लहरें ,
जो उतरे जीवन मे गहरे ,
आँख खुली पतझर मे
चारों ओर लगे थे पहरे !

काँटों भरा मिला पथ ,
संध्या से पहले अँधियारे ,
बाँध न पाये जिन्हें यहां पर मोहक जाल रुपहरे !
झोली भर-भर देती उडती धूल ,धूप की तेजी ,
जिनको हार मिली पग-पग पर
उनको मेरी जीत समर्पित !
*
पाँव न रुकने पाया ,
पल भर मिली न छाया ,
क्या बहलाना उनको ,
जिनकी टूटी सारी माया !

सबके लिये बीज बोने ,
सबको जीवन देने ,
तपा-तपा कर भस्म बना डाली
कंचन सी काया !
गला-गला आँसू मे जिनको पाला आघातों ने,
राग न देखे जिनने , उनको
मेरे मन की प्रीत समर्पित !
*
इसीलिये आये थे ,
उनने फूल नहीं पाये थे ,
लेकिन अपने साथ
जिन्दगी का अमृत लाये थे ,

मिला आसरा किसका
सिर पर घिरती रहीं घटायें ,
लेकिन हाथ पसार
किसी के द्वार नहीं आये थे ,
कभी देख पा सके नहीं जो ममता का सपना भी ,
जिनने मान न पाया वे मेरे आँगन मे पूजित -अर्चित !
*
!जिनके आँसू फूल बन गये
धरती की माटी मे ,
जिनकी साँसेँ धूल बनी ,
दे मधुऋतु को थाती में !

खोया तो हर बार मगर
कुछ हाथ न आया जिनके ,
किसी बहाने भी अब उनसे
दूर न जा पाती मैं !
वर्जित थे उल्लास और ङोंठों पर बेबस ताले ,
उनको ही बस उनको ये देखे-अन देखे अश्रु समर्पित !
*

स्वीकारो ,ना स्वीकारो !

देवता, स्वीकारो ,ना स्वीकारो !
*
ये तो तान मेरी गान तो तुम्हारे .
सौंप जाऊँ तुम्हें साँझ या सकारे ,
जी रहे हैं अनुरक्ति के सहारे ,
मेरे प्राण मे तुम्हारे राग सोये ,
आई द्वारे ,पुकारो ,ना पुकारो !
*
रह जाय चाहे जानी-अन-जानी
मेरी साँस जो कहेगी वो कहानी
एक बात जो कभी न हो पुरानी ,
अश्रु वेदना को घोल के लिखेंगे,
आँख खोल के निहारो ,ना निहारो !
*
प्रात जाये,साँझ गाये रंग घोले,
मेरे प्राण मे विहंग एक बोले ,
दूर हेरते सुतारे नैन खोले ,
ये तो भें मे चढी हूँ मै स्वयं ही,
सिंगार तुम सँवारो ,ना सँवारो !
*
देर नहीं ,दूर नहीं बेला ,
लौथ आया द्वार पाहुना अकेला ,
उठ रहा उलझनों का एक मेला ,
आँख मे अब नहीं रहे किनारे ,
सामने हूँतुम उबारो ,ना उबारो !
*
एक बेडी पहनाई शक्ति ने ही
अंत होगा एक अनुरक्ति मे ही ,
आज बाजी लगा दी भक्ति ने ही ,
मुक्ति मे नपीं ये कामना फलेगी ,
सोचना क्या ,तुम हारो ,ना हारो !
*

पाप क्या है पुण्य क्या है ?

कौन सी राहें गलत हैं ,जो कि चलना छोड दूँ मै ,
तुम मुझे इतना बता दो पाप क्या है,पुण्य क्या है !
*
दो चरण की एक गति है ,एक मति है, एक पथ है !
अंत भी जिसका अजाना फिर कहो क्या पथ-कुपथ है?
एक स्वर की डोर जिसको खींचती रहती सदा ही ,
उस पथिक के चल पगों को कौन-सा बन्धन सुखद है?
कौन जाने किस जगह से और कितनी दूर जाना ,
इस लिये इतना बता दो आदि क्या है ,अंत क्या है ?
*
जब तिमिर की गोद मे आलोक पलकें मूँद सोता ,
नींद मे मन किसी कल्पित वास्तव का भ्रम सँजोता ,
अतिक्रमण कर काल का जब स्वप्न तिरते हों नयन मे,
उस मनोगति पर कहीं का बाह्य अनुशासन न होता?
एक दिन भर का उजेला ,रात भर की कालिमा भी,
तुम मुझे इतना बता दो ,सत्य क्या है स्वप्न क्या है?
*
एक क्रम सब ओर देखा पर लगा सब-कुछ नया है,
आँख को आभास था जो आ गया वह फिर गया है!
सप्तरंगी घोल कर रँग कल्यना की तूलिका से,
चित्र कल ही तो बनाया आज लेकिन मिट गया है?
एक क्षण मे पा लिया जो .,खो गया वह दूसरे क्षण,
तुम मुझे इतना बता दो जिन्दगी को मर्म क्या है?
*

कौन आएगा ?

हथेली पर धर कर अंगार ,
चीरने को अथाह अँधियार-
कौन आएगा मेरे साथ ?
*
उमड़ती नेताओं की भीड ,जोंक से फूले हुए शरीर ,
भरी है भूख अगाध !
घृणा का कर बेरोक प्रचार ,
राष्ट्र हित को चूल्हे मे झोंक ,
कहाते कर्णाधार !
भ्रष्ट ,कपटी ये रँगे सियार
 बने हैं जन-जन के संताप ,
भेडिये ये खूँख्वार !
*
और ये सौदेबाज़ !
विवशता भूख-प्यास को तोल ,
बेचते रोग व्याधि औ ताप !
मिलावट और काला बाज़ार !
न कोई सोच ,न ग्लानि ,न क्षोभ !
इन्ही की है करतूत - अंध औ बधिर शरीर ,
लुंज तन और मुड़े सब अंग ,
कान , सुन करुण विलाप ,
पा रहे तृप्ति अपार !
बिकी आत्मा , बिक चुका विवेक ,
कहाँ इनके कलुषों की थाह ?
*
धर्म के बनते जो अवतार ,
नाम छपने को देते दान ,
भरा अंतर मे पाप ,
होंठ पर हरि का नाम !
दिखाने को भगवान
किन्तु मंदिर पर इनका नाम !
चढ़ावा औ प्रसाद उत्कोच ,
ईश्वर पर एहसान ,
कुण्डली मार पड़े चुपचाप
 समेटे धन को काले नाग !
*
स्वयं को बता प्रबुद्ध ,
होंठ सीकर बन बैठे मूक ,
धरे हाथों पर हाथ !
निगल जाते मक्खियाँ ,
मूँद आँखें , धर मौन यही धृतराष्ट्र !
तर्क के फैला जाल,
मंच भर वाद-विवाद ,ग्रंथ-भर ऊहापोह ,
बुद्धि पर बलात्कार !
*
अरे , ये बड़े धुरंधर लोग ,
उठा लेते सिर पर आकाश !
चतुर्दिक आग ,अश्रु और चीख ,
यहाँ दिग्भ्रमित समाज ,
किन्तु ये ऊँचे लोग ,
किनारे हो चुपचाप ,
उगल देते दार्शनिक विचार !
सत्य कैंची से काट ,
कलम से तोड़-मरोड़ ,
मिलाकर नमक -मिर्च रोमांच ,
बना लेते स्कूप ,
 पृष्ठ काले कर भर अख़बार ,
नई पीढी को पिला अफ़ीम ,
किया करते गुमराह !
कहाँ प्रारंभ कहाँ है अंत , रा है पारावार !
*
सुनोगे क्या पथ -बन्धु ,
तुम्हें इतना अवकाश ?
कौन आएगा मेरे साथ-
 डूबकर लेने थाह ?
सहन करने केवल उत्ताप ,
सिर्फ़ बदनामी औ उपहास
समझ कर अपना प्राप्य ,
कौन विष पीने को तैयार ,
हथेली पर धर ले अंगार ?
*
खोलने पाखंडों की पोल ,
छिपा कर रक्खे जो कंकाल
बंद कमरों से उन्हे निकाल ,
दिखाने असली रूप !
खोजने तथ्य ,बाँचने सत्य ,
तोड़ने भ्रम के जाल !
*
विषम जीवन के सिर धर शाप ,
और उपहास ,व्यंग्य अपमान - यही पाथेय !
सदाशिव सा अविकार ,गरल पी निस्पृह ,शान्त ,
कौन आएगा मेरे साथ ?
*-

मेरे दीप तुम्हारे पथ में !

भरते हों आलोक निरन्तर ,स्नेह भरा ले आकुल अन्तर ,
पथिक जहाँ प्रस्थान तुम्हारा ,वहीं बहें मेरे मंगल स्वर !
जाओ तोड शृंखला तम की ,मेरे गीत तुम्हारे पथ में !
*
वे अनन्त सुख के लघुतम क्षण ,भरें हृदय मे नव नव स्पन्दन !
जीवन के तपते आतप पर छायें मेरे नयनों के कण !
मेरे पथिक बढो मुस्काते ,चिर आशीष तुम्हारे पथ में !
*
विस्मृत बीती कथा-कहानी ,भर न चले नयनों मे पानी !
आज आखिरी धन्यवाद लो ,जो ली थी मेरी मेहमानी !
दो क्षण का विक्षाम तुम्हारा ,जलती प्रीत तुम्हारे पथ में !
*
मस्तक पर अम्बर की छाया ,धरती पर स्वप्नों की माया ,
मीत कभी भी हार न जाना ,वही बहुत जो हमने पाया !
ये पथ की पुकार ही सच है ,हँसती जीत तुम्हारे पथ में !
*
तुम प्रभात के पहले यात्री ,कभी न छाये दुख की रात्री ,
पग की गति हो नये पथिक को नयी प्रेरणा की निर्मात्री !
चाहे सारा विश्व विमुख हो ,कोई मीत तुम्हारे पथ में !
*

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

बहत्तर कुँवारियाँ

जन्नत का नज़ारा
बहत्तर कुआँरियाँ एक आदमी के लिये !
वाह क्या बात है !
यह है जन्नत का नज़ारा !
यहाँ तो चार पर ही मन मार कर रह जाना पड़ता है ,
और वे चारों भी समय के साथ ,
कितनों की माँ बन-बन कर हो जाती हैं रूढ़ी, पुरानी ,

अल्लाह की रहमत !
बहत्तर कुआँरियां ,
हमेशा जवान रहेंगी ,हर समय तुम्हारा मुँह देखेंगी ,राह तकेंगी !
न माँ ,न बहन ,न बेटी ,
ये सब फ़लतू के रूप हैं औरत के !
सामने न आयें !
बस बहत्तर कुआँरियाँ और दिन रात भोग-विलास !
और हमें क्या चाहिये !
अल्लाह को ख़ुश करने के लिये ,
सैकड़ों की मौत बने हमारे शरीर के चाहे चीथड़े उड़ जायें ,
बस, बहत्तर कुआँरियाँ हमें मिल जायें !

भस्मासुर

सुनते थे कभी
किस्से-कहानियों में ,
प्रत्यक्ष हो गया आज -
देख लो चारों ओर
त्राहि-त्राहि ,
आग के गोले ,बारूद का धुआँ
और मृत्यु का भयावह नृत्य !
इन्सान को भेड़-बकरियां बनाने के लिये,
हाँक कर अपने ढंग से चलाने के लिये ,
घूम रहा है भस्मासुर !
*
भयावह यंत्रणाओं से पगलाई स्त्रियाँ
और लगातार नोचा जाता हताश बचपन ,
विक्षिप्त हो उड़ा रहे चीथड़े ,
विस्फोट कर अपना ही तन
कि एक बार ही मुक्ति मिल जाये
यों तड़प-तड़प मरने से !
*
किसकी निर्मिति ?
उत्तरदायी कौन ?

इन्सानी ख़ून का स्वाद
लगाया किसने उसकी ज़ुबान पर ।
किसने ? क्यों ?
*
ऊपर से मुग़ालता पाले
बैठे रहे चैन से
कि कृतज्ञ रहेगा हमारा ,
दाता का अनुगामी बना ?

पर वह जान चुका है अपनी सामर्थ्य,
तुम्हारी सीमायें ,
और अब दाँव आज़माया है तुम्हीं पर
क्योंकि वही स्वाद है तुम्हारे ख़ून में भी !
*
स्वार्थी कृपा,
और कुपात्र का दान
बना जो अभिशाप ,
सारी धरती के लिये !
कैसे निराकरण ?
कहाँ समाधान?
*
प्रकृति का नियम -
जो बोया है काटोगे ,
दिया है पाओगे ,
किया है सामने आयेगा ।
तुम्हारा ही रचा
यह भस्मासुर
तुल गया तुम्हारे सर्वनाश के लिये !
*
भागोगे कहाँ
बच कर
कहाँ -कहाँ भागोगे !
पीछा कर रहा है निरंतर !
भस्मासुर ,
कितने रूप ,कितने नाम !
कहाँ है समाधान?
*
यहां रेखायें सरल नहीं होतीं,
घूम जाती हैं वर्तुलाकार
अनादि-अनन्त !
ऐकान्त कुछ नहीं , सब अनेकान्त
निरंतर आन्दोलित ,आवर्तित ,घूर्णित
नये-नये रूपाकार ढालती !
*
घूमती रेखाओं में
नये वृत्त खींचो ,
शुरू होने दो एक नया नाच ,
ऐसा
कि उसका हाथ और उसी का सिर !
और भस्मीभूत हो जाये ,
भस्मासुर !

रक्तबीज

भैंसा फिर उछल रहा है !
घसीट रहा इन्सानियत को जकड़ने, डालने को कैद में
अपनी रखैल बना कर !
उछल-उछल बार बार ,चला रहा है सींग ,
खुर पटक-पटक कर खूँद रहा है धरती !
वहाँ तो बीज रक्त में थे ,
घरती पर बूँद गिरते नये शरीर खड़े हो जाते !

यहाँ तो मानसिकता है रक्तबीजी ,
फैलते हैं बीज हवा के साथ ,उगती हैं फ़सलें !
गिनती कहाँ ?उनकी फ़ितरत में है
विश्व द्रोह !

विचार- विवेक -वर्जित अँधेरों में जीना
फ़ितरत है उनकी !
ज़िन्दगी के लिये यही शर्त है उनकी !
शताब्दियों की साधना ,मनुजता की विरासत,
संस्कृतियाँ ,कलायें , विद्यायें ,
नाम-निशान मिटा दो सब का !
तोड़ दो ,जला दो सब कुछ
जो उनके अनुकूल नहीं है !

रोशनी नहीं है कहीं !
छाया है कुहासा ,,आच्छन्न हैं दिशायें,
आकाश बहुत धुँधला है ।
और
उन पर किया गया कोई भी प्रहार ,
रोप देता अगण्य रक्तबीज !

समाधान सिर्फ़ एक !
इतिहास स्वयं को दोहराये -
देवों के सार्थक अंशों से रूपायित हुई थी जैसे चण्डिका !
शक्तियाँ जगत की मिल महाकार धर ,
तुल जायँ करने को आर-पार फ़ैसला !
घेर लें दनुज को उन्मत्त महाकाली सी
क्रुद्ध, कराल और सन्नद्ध !
प्रचण्ड वार से संहारती
अपनी लाल जिह्वा लपलपाती वही चामुण्डा
तीक्ष्ण दाँतों से चबा-चबा , रक्त पी-पी
उगल डाले रिक्त अंश !

लाओ रोशनी ,किरणें बिखेरो ,
वर्ना दम घुट जायेगा -इन्सानियत का !
कि धरती मुक्त ,हवा निर्मल ,और दिशायें दीप्त हो जायें ,
कि निर्विघ्न हो सके मानवता की जय-यात्रा,
और मंगलाचरण हो एक नये युगका !

कहाँ है मेरा घर

अपना घर -
कहाँ है मेरा घर ?
जाना चाहती हूँ ,रहना चाहती हूँ अब वहीं !
छोटी थी तो समझ में नहीं आता था ,
सुनती थी पराई अमानत हूँ,अपने घर जाकर जो मन आये करना !
धीरे-धीरे समझ में आता गया कि यह घर मेरा नहीं ।
पर फिर यहाँ जन्म क्यों लिया ?

बड़ी हुई - घर ढूँढा जाने लगा जहाँ भेज दी जाऊं ,
उऋण हो जायें ये लोग ,भार मुक्त !
चुपचाप चली आई नये लोगों में !
पर ये घर तो उनका था
जो लोग यहीं रहते आये थे !

मैं नवागता ,
ढालती रही अपने को उनके हिसाब से !
नाम उनका ,धाम उनका ,
सारी पहचान उनकी !
बनाये रखने की जिम्मेदारी मेरी थी ,
निभाती रही !
निबटाते -निबटाते चुक गई ,
अब भी रह रही हूँ पराये घरों में ,
सबके अपने ढंग !

ढाल रही हूँ फिर अपने को
कितनी बार ,कितनी तरह !
अंतर्मन बार-बार पुकारता है -
'चलो अपने घर चलो !'
जनम-जनम से गुमनाम भटक रही हूं !
कहाँ है मेरा घर !

याचक

वह प्रथम रात्रि,आ गई मिलन की बेला
लज्जित नयनों में स्वप्न सजा अलबेला
पद-चाप और आ गया प्रतीक्षित वह पल
अवगुंठन-से नीचे झुक गये पलक दल
आ बैठा कोई अति समीप शैया पर
तन सिहर उठा, मन जाने कैसा दूभर!
*
'स्वागत ,अपने इस गृह में आज तुम्हारा,
तुम स्वामिनि मेरा सब-कुछ प्रिये, तुम्हारा
पर मेरी एक कामना यदि पूरी हो,
अब नहीं बीच में कोई भी दूरी हो'
*
पलकें कुछ उठीं कि वह आनन विस्मित सा ,
ज्यों पूछ रहा रह गया अभी कुछ शक क्या
नेहाविल दृष्टि जमी जैसे उस मुख पर
कुछ देर शान्ति ,फिर मुखर हो गया वह स्वर,
' मैं नहीं चाहता अंश-अंश कर पाऊं,
तन-मन से पूरी एक बार अपनाऊं
इस भाँति आवरण धरे लाज का ,पट का ,
मैं दूर दूर ही रह जाऊँगा भटका!
आवरणहीन तुम मेरे सम्मुख पूरी
रह जाय न कोई मुझमें-तुममें दूरी!'
*
' सागर-सरि-सी मेरे निज में मिल जाओ,
आवरण ऊपरी अपने तुम्हीं हटाओ !'
वह चौंकी-सी मुख पर छा गई अरुणिमा ,
कैसी व्याकुल पुकार यह प्रिय की, ओ,माँ
'तुम प्रिये साध लो मन, जब तक हो संभव,
पश्चात् इसी के हो अनन्य का अनुभव!
सागर सा उफनाता मैं बाहु पसारे
जोहूँगा बाट तुम्हारी, संयम धारे!
जितने दिन चाहो ,बनी रहो प्रिय पाहुन
मैं रहूँ प्रतीक्षा-रत अनुदिन याचक बन'
*
कंपित तन-मन में उठी अनोखी तड़पन,
यह कैसा दुर्निवार दारुण , आमंत्रण!
सौंपी है सारी लाज, शील और सर्वस,
पर पार किस तरह पाऊं,यह निर्मम हठ
*
आया, फिर एक दिवस ,वह निशि ले आया
आवेग भरे हठ का ऋण गया चुकाया
सँध से ही केवल दीप जोत दमकाता,
बाहर तक आता अगरु -धूम लहराता!
छाया-प्रकाश की मोहक-सी संरचना,
ज्यों कुहुक जाल-सा पूर रहा हो अपना!
यों शयनागार बना अपना पूजा-घर
जाने क्यों बैठी वहाँ कपाट लगा कर!
पूजा में अर्पित सुरभित मृदु सुमनों सी
छाये लेती उड़-उड़ सुगंध अनदेखी
*
जी भरा आ रहा पति का हो,व्याकुल- सा!
उद्दाम प्रणय के भावों से उच्छल सा
'ओ, मेरे याचक, आज तुम्हें आमंत्रण!'
कुछ कंपित -सा वह स्वर करता आवाहन)
'अर्गलाहीन पट,स्वयं तुम्हीं खोलो अब,
अपने निजत्व में पा लो मेरा सर्वस!
आओ,प्रिय आओ ,खोलो द्वार पधारो
मेरा संपूर्ण समर्पित लो,स्वीकीरो'

आकर्षण

मैं इसको छोड़ कहाँ जाऊँ ,इस धरती का आकर्षण है !
ऊँचे पर्वत , गहरे सागर ,ये वन सरितायें ,ग्राम-नगर
ऋतुओं के नित-नित नये रूप इन सब में रमती हुई -डगर!
ये ज्योतिर्मय आकाश और ये ऋतंभरा रमणीय धरा -
इन सबसे ममता है मेरे इस माया-मोह भरे मन की ,
जिसने सिरजा साकार किया सिर पर उस माटी का ऋण है !
उन्मुक्त हँसी के कुछ पल भी धो जाते सारी कड़ुआहट ,
कुछ तन्मय पल भी डुबो-डुबो लेते हैं अपनें में सुध-बुध !
अन्तर में उठते तूफानों का मूल कहाँ ढूँढूँ जाकर
कोई उत्तर पा जाने की आशा ले बैठी हूँ रुक कर !
जाने की बात करूँ फिर क्यों जब मिला नहीं आमंत्रण है !
जो व्यक्त हो रहे अनायास मेरे वह स्वर सुननेवाला ,
जो अर्थ जानता केवल मन ,कोई उसको गुनने वाला,
मैं तुम को छोड़ कहाँ जाऊं , टेरते अहर्निश ,दुर्निवार !
प्रतिध्वनि रह रह कर टकराती अंतर्मन के झनझना तार !
उस पार व्यक्ति का हो जाना जैसे सबसे निष्कासन है !
सारे संबंध न जाने क्यों अक्सर ही बेगाने लगते !
इन राग-विराग भरे गीतों के बोल मुझे थामे रहते ,
फिर वहाँ किस तरह साध सकूँगी अपना साँसों का सरगम !
उस ओर अनिश्चित है सब कुछ किस तरह सधेगा उचटा मन
कडुवे-मीठे खट्टे अनुभव का अपना हिस्सा क्या कम है !
इन सबसे अगर किनारा कर मैं भी चल दूँ हो अनासक्त
जिनकी वाणी फूटी न कभी वे फिर रह जायेंगे अव्यक्त
इस कर्म भूमि में कहीं न निष्क्रिय कर डाले संचित विषाद
कर सका पलायन कौन यहाँ, वैराग्य सिर्फ़ मन का प्रमाद
तृष्णायित मृग सा व्याकुल मन उलझा जिसमें यह जीवन है
सब पाप -पुण्यफल यहीं सुलभ ,अपना परलोक यहीं लगता ,
मेरे भगवान यहीं बसते .मुझको ते स्वर्ग यहीं दिखता !
मेरे तो सारे तार यहीं से जुड़े और संचालित भी ,
बाहरी जगत के भीतर ही मन का संसार बहुत रुचता ,
कुछ अता-पता मालूम नहीं वह लोक मुझे लगता भ्रम है !
ये शब्द, रूप, रस, गंध, परस, आनन्द-रूप प्रभु का प्रसाद !
इस राग भरे अंतर में उतर न आये पल भर में विराग !
गोरस की गागर मानव तन ,पकता सह सहकर घोर तपन
भर दिया उसी में उफनाती कितनी सरिताओं का संगम ,
गागर रीती रह जाय न ये जितना पा लें उतना कम है !
कितने मंथन के बाद मिला कैसे सहेज रक्खे ग्वालन ,
कंकरी मार गागर फोड़ी ,ले महाचोर भागा माखन
बहुरूपी नटनागर की नित छुप-छुप दधि- माखन की चोरी ,
किस आकर्षण से खिंची चली आती फिर भी ब्रज की भोरी !
मनमानी रोक सके उसकी किसने पाया इतना दम है

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

मेरे गीत तुम्हारे !

*
मेरे गीत तुम्हारे !
ये अभाव के गान,
किसी मानस की आकुल तान ,
व्यथा की क्षण-क्षण की अनुभूति ,
जहाँ पर आ कर बँधती!
बात एक ही मेरी चाहे तेरी ,
जो पग-पग पर हारे!
मेरे गीत तुम्हारे!
*
स्वप्निल पलकें खोल चले
जग के रूखे आँगन में,
वे जीवन के फूल जिन्हों ने
मधु के दिवस न देखे
बसने को पतझार चला
जिन साँसोँ के कानन मे!
वे अटके भटके से
,बेबस जीवन के मारे,
मेरे गीत तुम्हारे!
*
अधरों की मुस्कान,
हृदय का क्रन्दन जहाँ मिलेँगे,
करुणा-सिंचित कथा –कहानी,
भले न मुख से फूटे,
उस माटी मे गन्ध-विकल
गीतोँ के फूल खिलेँगे!
अश्रु-हास सुख-दुखमय जीवन
चलता साथ तुम्हारे!
मेरे गीत तुम्हारे !
*
मेरे स्वर ही मेरा परिचय,
इतना-सा ही नाता,
जगती की क्षणमयता और
समय की लहरोँ मे भी
एक यही सँबँध
जोड़ता मन से मन का नाता!
हार गई जो अपनी बाजी
लिखती नाम तुम्हारे
मेरे गीत तुम्हारे!