शनिवार, 27 मार्च 2010

मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ

स्वर मुझे दो ,मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ .
*
भाव में डूबे अगम्य अगाध होकर ,
व्याप जाने दो हवाओं की छुअन में ,
लहर में लिखती रहूँ जल वर्णमाला ,
कौंध भऱ विद्युतलता के अनुरणन में
कुहू घन अँधियार व्याप्त निशीथिनी में
किसी संकल्पित सुकृत की पारणा हूँ
*
शंख की अनुगूँज का अटका हुआ स्वर
घाटियों के गह्वरों में घूम-आए ,
शिखऱ छू जब अंतरिक्षों में बिला ,
आकाश गंगा के तटों को चूम आए
बहुत लघु हूँ ,बहुत भंगुर हूँ भले ही ,
पर किसी अपवाद की संभावना हूँ !
*
घंटियाँ बजने लगी हैं शिखर पर अब ,
लौ कपूरी डालती फेरे चतुर्दिक्,
लहर में झंकारते अविरल मँजीरे
आरती का ताप हो जाता समर्पित ,
जन्म फेरा बन भले ही रह गया ,
चिर-काल की पर मैं निरंतर साधना हूँ !
*

बुधवार, 17 मार्च 2010

संदर्भहीन

एक पुरानी कविता -

सपनों जैसे नयनों में झलक दिखा जाते
कैसे होंगे सरिता तट, वे झाऊ के वन !
*
घासों के नन्हें फूल उगे होंगे तट पर ,
रेतियाँ कसमसा पग तल सहलाती होंगी
वन-घासों को थिरकन से भरती मंद हवा ,
नन्हीं-नन्हीं पाँखुरियाँ बिखराती होगी
जल का उद्दाम प्रवाह अभी वैसा ही है ,
या समा गया तल तक आ कोई खालीपन !
*
जिन पर काँटों की बाड़ अड़ी थी पहले से ,
वर्जित उन कुंजों में कोई पहुँचा है क्या .
संदर्भहीन कर देता सारे ही नाते .
धीमे से कानों तक आता कोई स्वर क्या
क्या बाँस वनों में पवन फूँकता है वंशी ,
रातों में रास रचाता क्या मन-वृंदावन !
*
ढलते सूरज की किरणें लहरों में हिलमिल ,
जब जल के तल में रचें झिलमिली राँगोली,
शिखरों पर बिखरी रहें सुनहरी संध्यायें
झुनझुना बना दे तरुओं को खगकुल टोली
लहरों का तट तक आना ,और बिखर जाना
कर जाता मन को अब भी वैसा ही उन्मन!
*
क्या वर्तमान से कभी परे हो जाते हो
बेमानी लगने लगता सारा किया धरा ,
सब कुछ पाने बाद कभी ऐसा लगता ,
कुछ छूट गया है कहीं, रह गया बिन सँवरा.
मन पूरी तरह डूब पाता क्या रंगों में ,
यह भी सच-सच बतला दो अब कैसे हो तुम !
*