सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

दुर्लभ

एक सीमा है हर रिश्ते की ,

एक मर्यादा ,

एक पहुँच!

बस वहीं तक

निश्चित- निश्चिन्त.

शोभनीय -सुरुचिमय .

प्रसन्न और सुन्दर !

*

इसके आगे कोरा छलावा .

विकृत, सामंजस्यहीन ,

दुराव-छिपाव का ग्रहण ,

शंकाओं का जागरण.

क्योंकि अस्लियत

मन जानता है ,

कोई जान सकता भी नहीं.

अवशिष्ट अपराध-बोध ,

अंतरात्मा पर बोझ,

जिससे कहीं छुटकारा नहीं .

*

निर्णय सिर्फ अपना ,

धिक्कारे कोई कितना ,

क्या फ़र्क पड़ेगा

हो जाये विमुख दुनिया ,

न मिले प्रशंसा ,
*

बहुत कुछ छूट जाता है पीछे ,

रह जाता  मिलते-मिलते

जब सौदा नहीं कर सके मन ,

चला आये चुपचाप .

न मिले !

बस,आत्मबल साथ रहे ,

अपने आगे ही

 सिर तो नहीं झुके !

*

जानती हूँ

केवल अशान्ति आएगी हिस्से में.

और निन्दा भी .

स्वीकार !

लाद दिए जिसने कलंक ,

लौट जायेंगे वहीं,

बोझिल धुएँ की धुंध

आत्मा को नहीं व्यापे ,

कोई पछतावा नहीं ,

*

दुख होगा ,

बीत जाएगा धीरे-धीरे ,

बस मेरा 'मैं' .

प्रखर -चैतन्य मय रहे

अपने आप में ,

साथ कोई हो या नहीं ,

अश्रु-धुले स्वच्छ अंतःकरण से दुर्लभ,

और भी कुछ है क्या ?

*

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मैं तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ

*
शैशव की लीलाओँ में

वात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले ,

सबसे घिरे तुम ,

दूर खड़ी देखती रहूँगी .

यौवन की उद्दाम तरंगों में ,

लोकलाज परे हटा ,आकंठ डूबते रस-फुहारों में

जन-जन को डुबोते ,

दर्शक रहूँगी ,

कठिन कर्तव्य की कर्म-गीता का संदेश

कानों से सुनती-गुनती रहूँगी .

*

लेकिन ,

जब अँधे-युग का ,

सारा महाभारत बीत जाने पर ,

बन-तुलसी की गंध से व्याप्त

अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले ,

ओ सूत्रधार ,तुम चुपचाप अकेले

अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,

उन्हीं क्षणों में तुम्हारे मन से

जुड़ना चाहती हूँ

तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ

*

यहां कुछ समाप्त नहीं होता ,

क्योंकि तुम सदा थे रहोगे ,

और मैं भी .

लीला तो चल रही है

सृष्टि के हर कण में ,

हर तन में ,हर मन में .

इस सीमित में उस विराट् को

अनुभव करना चाहती हूँ.

*

कि सारी वृत्तियों पर छाये

इस सर्वग्रासी राग को,

समा लो अपने में .

लिए जाओ अपने साथ

जो असीम में डूबते मुझसे पार

अनंत होने जा रहा है .

*

वही अनुभूति ग्रहण कर

मन एक रूप हो जाए.

कि यह भी अपरंपार हो जाए .

व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,

जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें !

और फिर अनासक्त ,

डुबो दूँ, अथाह जल में,

अपनी यह रीती गागर

.*