एक सीमा है हर रिश्ते की ,
एक मर्यादा ,
एक पहुँच!
बस वहीं तक
निश्चित- निश्चिन्त.
शोभनीय -सुरुचिमय .
प्रसन्न और सुन्दर !
*
इसके आगे कोरा छलावा .
विकृत, सामंजस्यहीन ,
दुराव-छिपाव का ग्रहण ,
शंकाओं का जागरण.
क्योंकि अस्लियत
मन जानता है ,
कोई जान सकता भी नहीं.
अवशिष्ट अपराध-बोध ,
अंतरात्मा पर बोझ,
जिससे कहीं छुटकारा नहीं .
*
निर्णय सिर्फ अपना ,
धिक्कारे कोई कितना ,
क्या फ़र्क पड़ेगा
हो जाये विमुख दुनिया ,
न मिले प्रशंसा ,
*
बहुत कुछ छूट जाता है पीछे ,
रह जाता मिलते-मिलते
जब सौदा नहीं कर सके मन ,
चला आये चुपचाप .
न मिले !
बस,आत्मबल साथ रहे ,
अपने आगे ही
सिर तो नहीं झुके !
*
जानती हूँ
केवल अशान्ति आएगी हिस्से में.
और निन्दा भी .
स्वीकार !
लाद दिए जिसने कलंक ,
लौट जायेंगे वहीं,
बोझिल धुएँ की धुंध
आत्मा को नहीं व्यापे ,
कोई पछतावा नहीं ,
*
दुख होगा ,
बीत जाएगा धीरे-धीरे ,
बस मेरा 'मैं' .
प्रखर -चैतन्य मय रहे
अपने आप में ,
साथ कोई हो या नहीं ,
अश्रु-धुले स्वच्छ अंतःकरण से दुर्लभ,
और भी कुछ है क्या ?
*
एक मर्यादा ,
एक पहुँच!
बस वहीं तक
निश्चित- निश्चिन्त.
शोभनीय -सुरुचिमय .
प्रसन्न और सुन्दर !
*
इसके आगे कोरा छलावा .
विकृत, सामंजस्यहीन ,
दुराव-छिपाव का ग्रहण ,
शंकाओं का जागरण.
क्योंकि अस्लियत
मन जानता है ,
कोई जान सकता भी नहीं.
अवशिष्ट अपराध-बोध ,
अंतरात्मा पर बोझ,
जिससे कहीं छुटकारा नहीं .
*
निर्णय सिर्फ अपना ,
धिक्कारे कोई कितना ,
क्या फ़र्क पड़ेगा
हो जाये विमुख दुनिया ,
न मिले प्रशंसा ,
*
बहुत कुछ छूट जाता है पीछे ,
रह जाता मिलते-मिलते
जब सौदा नहीं कर सके मन ,
चला आये चुपचाप .
न मिले !
बस,आत्मबल साथ रहे ,
अपने आगे ही
सिर तो नहीं झुके !
*
जानती हूँ
केवल अशान्ति आएगी हिस्से में.
और निन्दा भी .
स्वीकार !
लाद दिए जिसने कलंक ,
लौट जायेंगे वहीं,
बोझिल धुएँ की धुंध
आत्मा को नहीं व्यापे ,
कोई पछतावा नहीं ,
*
दुख होगा ,
बीत जाएगा धीरे-धीरे ,
बस मेरा 'मैं' .
प्रखर -चैतन्य मय रहे
अपने आप में ,
साथ कोई हो या नहीं ,
अश्रु-धुले स्वच्छ अंतःकरण से दुर्लभ,
और भी कुछ है क्या ?
*