बुधवार, 18 अगस्त 2010

कुंभ-कथा.

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(स्वतंत्रता के बाद पहले महाकुंभ के अवसर पर ऐसी अव्यवस्था हो गई  कि भीड़ में अँधाधुंध भागदड़ मच गई और बहुत लोग गिर-गिर कर रौंदे जाते रहे -अधिकारी वर्ग पं. नेहरू के स्वागत में व्यस्त था.तब लिखी गई थी यह  - कुंभ-कथा)
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मानव के यह आँसू शायद सूख चलें पर ,
मानवता के अश्रु-लिखित यह करुण कहानी अमर रहेगी !
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स्वतंत्रता के बाद प्रथम ही ,महामृत्यु का निर्मम मेला ,
जाने कौन पाप की छाया लाई महाकुंभ की बेला .
गंगा-यमुना के संगम पर जीवन-मृत्यु गले मिलते थे .
आँसू और रक्त की बूँदें लिए मानवी तन चलते थे .
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जहाँ अमृत की बूँद गिरी थी वहीं मृत्यु का नृत्य हुआ था .
तीर्थराज की पुण्य-भूमि में भक्ति भाव वीभत्स हुआ था ,
घोर अमाँ की काली छाया, यह संगम श्मशान बना था,
बच कर भागें कहाँ? पगों के आगे तो व्यवधान घना था .
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गंग-यमुन धाराएँ बहतीं  ,कहो सरस्वति ,स्वर सरिता बन
 इधर काल अपना मुँह बाए, उधऱ हो रहा था अभिनन्दन !
खेल रही थी मृत्यु भाग्य की ओट लिए नर के प्राणों से
जननायक के कर्ण बंद थे किन्तु वहीं स्वागत गानों से ,
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उन भोगों में डूब कौन सुन पाता तट के आकुल- क्रन्दन !
राग-रंग थे वहाँ  दावतें उड़ती थीं ,उड़ते थे व्यंजन,
 अरी त्रिवेणी ,कहाँ बहा ले जाती तू यह रक्तिम धारा ,
तीरथ व्रत का यही समापन ,किसके पापों का निपटारा .
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 तीर्थराज की पुण्य-भूमिपर जब-जब उमड़ेगा जन-सागर ,
पुरा कथा की नयी वर्णना इसको किसका पाप कहेगी !
 मानवता के अश्रुलिखित ,यह करुण कहानी अमर रहेगी !
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शनिवार, 7 अगस्त 2010

सूरज देर से निकला -

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आज सूरज
रोज से कुछ देर से निकला !
लो ,तुम्हारी हो गई सच बात ,
सूरज देर से निकला !
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कुछ लगा ऐसा कि लम्बी हो गई है रात !
 और रुक सी गई ,
तारों की चढी बारात .
धीमी पड गई चलती हुई हर साँस
सूरज देर से निकला !
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घडी धीरे चल रही ,
कुछ सोचता सा काल
धर रहा है धरा पर हर पग सम्हाल-सम्हाल !
बँधा किसकी बाँह में आकाश ,
सूरज देर से निकला !
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अर्ध-निद्रा या कि सपनों की कुहक- माया
नेह भीगे  मृदुल स्वर लोरी सुनाते थे ,
अनसुने से गीत
रह-रह गूँज जाते थे !
हर नियम अलसा गया है आज
सूरज देर से निकला !
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देर तक अपना मुझे
टेरा किया कोई !
लगा सारी रात मैं
बिल्कुल नहीं सोई !
फिर कुहासा दृष्टि को बाँधे रहा ऐसा,
कि सूरज देर से निकला !
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