सोमवार, 14 जून 2010

भइया का पत्र

चिट्ठी के एक ही पृष्ठ से मैं पूरी गाथा पढ़ जाऊं !
नेह तुम्हारा पा ,जाने क्यों उमड़-उमड़ आता मेरा मन ,
बड़े बंधु के आगे जगता ,छोटी सी बहिना का बचपन !
इस कमरे में जहाँ बैठ कर पढ़े जा रही तेरे आखर ,
हर कोने में लगता जैसे नया उजास छा गया आकर
जाने क्यों आँखें भऱ आईं कोई पूछे क्या समझाऊं !
*
भले एक आभास मिला लगता तू सिर पर हाथ धर गया
तू न कहे पर अंतरतम तक पहुँचा भाव, अभाव भर गया !
कागज पर घुल बिखर गई पर वही इबारत उभरी उर पर !
पढ़ना चाहा बार-बार हर बार नयन आये पर भर भर
इतना रोदन उमड़ पड़ा ,आँचल भर आँसू कहाँ छिपाऊँ !
*
उदासीनताओं के झटके जहाँ कठिन कर गये हृदय-तल!
आज तुम्हारा स्नेह नयन में मेरे भर देता आँसू जल
कोई कमी नहीं फिर भी तो मन करता है तुझे पुकारूँ
तेरे नयनों में अपना वह पहलेवाला रूप निहारूं !
व्याकुल मन ही सुने न मेरी कैसे और किसे बतलाऊं !
*
इतने अश्रु बहाये सचमुच सारा मन का मैल धुल गया
और कंठ में आ अंतर की रुद्ध नदी का वेग खुल गया
भइया, आज तुम्हारी चिट्ठी हिला गई मन के तारों को ,
अब तो निभा लिये जाऊंगी ,दुनिया भर के व्यवहारों को
जिससे टिकी पढ़ रही कागज दीवारों को तिलक लगाऊँ !
*
भइया आज तुम्हारा ख़त पढ़ जाने कितना रोना आया ,
धन सा मन में धरे रही सब, कुछ न किसी को भी बतलाया
उस घर का थोड़ा-सा खाना ,शायद मुझको तृप्ति दिला दे ,
और वहाँ थोड़ा रुक जाना , यह छाया अवसाद घटा दे !
थोड़ा सा आकाश वहाँ का अपने नयनों में भर लाऊं !
*
अपना यह घर, पर वह घर किस तरह पराया करके भूलूँ
बार-बार मन करता जाकर वही पुरानी देहरी छू लूँ !
भइया तेरे पावन मन का,और अहेतुक नेह-जतन का ,
इतना बल मिल गया कि सारा श्रम विश्राम पा गया मन का
आज तुम्हारी यह पाती ही शुभाशीष सी माथ चढ़ाऊं !
*
पूछेंगे सब लोग हुआ क्या मैं किस-किस को उत्तर दूंगी
कभी किसी से बाँट न पाऊं उस मन को कैसे टोकूंगी
नाम तुम्हारा जब आयेगा काम-धाम सब पड़ा रहेगा
पूछो मत कुछ आज आयगा सारे दिन रह-रह कर रोना
जाने कब की रुकी रुलाई उमड़े कैसे बस कर पाऊँ !
*

बुधवार, 9 जून 2010

बहुत दिन हो गए

*
बहुत दिन हो गए
नदिया बड़ी संयत रही है .
लहर के जाल में सब-कुछ समाए जा रही है .
कहीं कुछ शेष बचता ,जमा बैठा जो तलों में .
बहुत दिन से न जागा वेग
मंथर वह रही बस
प्रवाहित मौन सी चुपचाप धारा ,
समेटे जाल सारे, डुबोए जल में समाए .
कहीं बरसा न पानी ,हिम-शिखर पिघला न कोई
उमड़ने दो बहुत दिन हो गए हैं ,
समेटे क्यों नहीं पथ के विरोधों को,
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए
कहीं आगे .
कगारें तोड़ कर लहरे समेंटें सब करें प्लावित
बहुत दिन हो गए ,
सभी कुछ देखते- रहते ,
बहुतदिन हो गए ,यों एक सा बहते ,
कहीं जो बाढ़ पानी में उमड़ आए .
*
नदी को बाँधना मत ,
रोकना मत ,शाप है जल का
बहुत कुछ तोड़ जाएगा ,
सभी कुछ टूट बिखरे कुछ न छोड़ेगा ..बहा देगा
तभी फिर देखना तटबंध सारे तोड़ते ढहते .
कि हाहाकार के स्वर वेग में बहते
लगे प्रतिबंध सारे मोड़ते अपनी तरह
बस एक झटके से
कगारों के बिना बढती नदी के वेग को चढते ,
प्रलय का रूप धरने से कहो फिर कौन टोकेगा
किसीमें दम कि चढ़ते पानियों का वेग रोकेगा
किसी में दम उफनती बाढ़ का आवेग रोकेगा .
बहुत दिन हो गए .
*
बहुत दिन हो गए

चुपचाप है ,बहती हुई भी शान्त संयत सी ,
कि गहरी घूर्णियों में घट रहा क्या कौन सोचेगा!
बहुत दिन हो गए ये तट नहीं भीगे
लहर कोई बहा दे रेत के डूहे ,
बराबर कर सतह इकसार कर डाले ,
तलों में जमी तलछट फिर निकल कर भूमि पर छाए ,
जिन्हें कर चूर बिखराया विरोधों को ,
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए कि
कि वर्जित सीढ़ियाँ चढ़ते ,ढहाते पुल
बढ़ी आगे चली जाए
कि पानी ,ढूँढ लेता राह अपनी
तोड़ बाधाएँ .
*
नदी के पाट मत देखो
नदी के घाट मत रोको
बहेगी मुक्त हो प्रतिबंध तोड़ेगी ,
प्रवाहों मे बहाती हरहराती ,कुछ न छोड़ेगी .
अगर फिर तुल गई,
रुख धार मोड़ेगी
युगों के बाद उन रीते कछारों को कभी देखो ,
कभी नदिया रहे ,
गहरे कगारों को जभी देखो
किसी अन्याय का प्रतिफल समझ लेना ,
नदी को दोष मत देना.
*
अभी तो शान्त बहने दो ,
तरल जल स्वच्छ रहने हो ,
अनादर और मनमानी नहीं सह पायगी नदिया
अगर समझो इशारों में बहुत कह जायगी नदिया .
समुन्दर की तरफ हर राह नदिया की ,
रुकेगी क्यों ?
बनाती रास्ता बढ़ जायगी नदिया.
बहुत दिन हो गए .
*