बुधवार, 10 नवंबर 2010

भिक्षां देहि


*
( माँ भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है- समय का फेर !)

रीत रहा शब्द कोश ,
छीजता भंडार ,
बाधित स्वर ,विकल बोल
जीर्ण वस्त्र तार-तार .
भास्वरता धुंध घिरी
दुर्बल पुकार
नमित नयन आर्द्र विकल
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां ,
पुत्र ,भिक्षां देहि !'
*
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,
अव्यक्त हो विलीन
देखती अनिष्ट वाङ्मयी शब्दहीन
दारुण व्यथा पुकार -
'भिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'
*
अतुल सामर्थ्य विगत
शेष बस ह्रास !
तेजस्विता की आग ,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी ,तुम्हारी ,
मैं भारती .
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां, पुत्र,
भिक्षां देहि'!
*
शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले ,
ऐसे न झिड़को ,
व्यवहार से निकालो
काल का प्रवाह निगल जाएगा
अस्मिता के व्यंजक अपार अर्थ ,भाव दीप्त
आदि से समाज बिंब
जिसमें सँवारे
मान-मूल्य सारे सँजोये ये महाअर्घ
सिरधर ,स्वीकारो
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि !
पुत्र ,देहि भिक्षां !'
*
फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,
देह दुर्बल ,मलीन
भारती निहार रही
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां ,
पुत्र, भिक्षां देहि !'
*