रविवार, 15 नवंबर 2009

बुद्धिजीवी

तर्कों के तीरों की कमी नहीं तरकस में ,
बुद्धि के प्रयोगों की खुली छूट वाले हैं
छोटी सी बात बड़ी दूर तलक खींचते ,
राई का पहाड़ पल भर में बना बना डाले हैं !
*
बुद्धि पर बलात् मनमानी की आदत है,
प्रगति का ठेका सिर्फ़ अपना बतायेंगे !
खाने के दाँत ,औ दिखाने के और लिये
दूसरों की टाँग खींच आप खिसक जायेंगे !
*
उजले इतिहास पे भी स्याही पोत धब्बे डाल
सीधी बात मोड-तोड़ टेढ़ी कर डालेंगे ,
बड़े प्रतगिवादी हैं घर के ही शेर बड़े
औरों की बात हो दबा के दुम भागेंगे !
*
इनके दिमाग़ का दिवालियापन देखो ज़रा,
अपनी संस्कृति की बात लगती बड़ी सस्ती है
इनकी बुद्धिजीविता है , मान्यताओं का मखौल ,
भरी इन विभीषणों में मौका परस्ती है !
*
ये हैं प्रबुद्ध, बड़ी - बुद्धता का ठेका लिये ,
शब्दों के अस्त्र-शस्त्र जिह्वा से चलाने में !
इनका जो ठेका इन्हीं के पास रहने दो ,
कोई लाभ नहीं इनके तर्क आज़माने में
*
अरे तुम बहकना मत,इनके मुँह लगना मत ,
ये तो बात-बात में घसीटेंगे ,उधेड़ेंगे ,
अपनी विरासत सम्हाल कर रखना ज़रा
इनका बस चले तो उसे ही बेच खायेंगे ,
*
रूप-जीवा रूप , औ'ये बुद्धि की दुकान लगा
अपने लिये पूरापूरा-राशन जुटायेंगे !
औरों को टेर-टेर पट्टियाँ पढ़ाते हुये
अपने खाली ढोल ये ढमा-ढम बजायेंगे

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

छिछोर हवायें -

सागर को गुदगुदाती ,छेड़ती थपकती ,
इठलाती हवायें,
धीरे से उसका पानी उड़ा ले जाती हैं !
चौंकती लहरें ,बाहें पसार,दौड़ती हैं बचाने अपना माल ,
उन्हें धकियाती ,लुढ़काती ,शोर मचाती ,
मनचाही नमी सतहों में छुपा ,भाग निकलती हैं बेईमान ,चोर हवायें !

चुलबुली मछलियां,हँसी के बुलबुले छोड़ती हैं ,
खिलखिलाती रोशनी बिखेरती है रंग,
मचलती किरणें दौड़ती हैं बेचैन लहरों को पकड़ने ,
चोरी और सीनाज़ोरी में कम नहीं ये भी !

ऊपर आकाश में हवायें,
इकट्ठा किये हैं ढेर के ढेर बादल !
समेटती -बिखेरती ,तरह-तरह से सँजोती ,
इधर से उधर करती रहती हैं ,
सारे दिन सारी रात
नाच-नाच कर धुनते हुये ,
बादलों के ढेर
आसमान के कोने-कोने में भर देती हैं ,
हल्के-फुल्के उड़ते पहल हर ओर ,
ये बरजोर हवायें !

क्षितिजों तक फैली आकाश की मुस्कान के रंग,
चारों ओर बिखेरती हैं आवारा अछोर हवायें !
गहरा सागर चुप-चुप देखता रहता सारा तमाशा ,
रंग नहाये बादलों की झिलमिलाती कोरें ,
बिंबित - प्रतिबिंबित
इसी गहराई में समा गई हैं दिशायें और सारा आकाश !

पर बादल टिकते कहाँ हैं उन के पास !
बेशर्म हवाओं का उछाह ठण्डा पड़ते ही,
सारी रंगबाज़ी छोड़
बरसते लौट आते हैं अपने घर !

फिर भी मानती नहीं ,
आगे नाथ न पीछे पगहा ,
बेरोक घूमती हैं हर ओर ,
महाछिछोर हवायें !