शनिवार, 12 दिसंबर 2009

मन-दर्पन

सच कहा कि साँस लिये जाती खींचे जीवन .

मन का विस्तृत आकाश
कभी छा लेता घिर बदला मौसम .

बादल-बूँदें छाया कुहास ,
आँधियाँ ,हवायें धूल भरी ,

ये सब आने-जाने वाले ,

फिर थिर हो उजला व्यापक मन.

विस्तृताकाश बन महानील

ढँक लेता भाव-अभाव ,चुभन ,

सीमित सहने की शक्ति बंधु,

है क्षम्य यहाँ क्षण की विचलन !

*

बिजलियां चमक लें

गरज-तरज बरसें बादल ,

छिप जायें सूरज-चाँद-सितारे-दिशा बोध ,

उच्छ्वसित पवन का वेग ,सजल आवेग

कहाँ तक ठहरेगा .

भरमा ले थोड़ी देर ,

हटा कर संयम के अवरोध,

प्रकृति कर ले नियमन .

फिर स्वच्छ ,सुशान्त गगन सा

मन दर्पन-दर्पन !
*

1 टिप्पणी: