*
शैशव की लीलाओँ में
वात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले ,
सबसे घिरे तुम ,
दूर खड़ी देखती रहूँगी .
यौवन की उद्दाम तरंगों में ,
लोकलाज परे हटा ,आकंठ डूबते रस-फुहारों में
जन-जन को डुबोते ,
दर्शक रहूँगी ,
कठिन कर्तव्य की कर्म-गीता का संदेश
कानों से सुनती-गुनती रहूँगी .
*
लेकिन ,
जब अँधे-युग का ,
सारा महाभारत बीत जाने पर ,
बन-तुलसी की गंध से व्याप्त
अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले ,
ओ सूत्रधार ,तुम चुपचाप अकेले
अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,
उन्हीं क्षणों में तुम्हारे मन से
जुड़ना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ
*
यहां कुछ समाप्त नहीं होता ,
क्योंकि तुम सदा थे रहोगे ,
और मैं भी .
लीला तो चल रही है
सृष्टि के हर कण में ,
हर तन में ,हर मन में .
इस सीमित में उस विराट् को
अनुभव करना चाहती हूँ.
*
कि सारी वृत्तियों पर छाये
इस सर्वग्रासी राग को,
समा लो अपने में .
लिए जाओ अपने साथ
जो असीम में डूबते मुझसे पार
अनंत होने जा रहा है .
*
वही अनुभूति ग्रहण कर
मन एक रूप हो जाए.
कि यह भी अपरंपार हो जाए .
व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,
जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें !
और फिर अनासक्त ,
डुबो दूँ, अथाह जल में,
अपनी यह रीती गागर
.*
शैशव की लीलाओँ में
वात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले ,
सबसे घिरे तुम ,
दूर खड़ी देखती रहूँगी .
यौवन की उद्दाम तरंगों में ,
लोकलाज परे हटा ,आकंठ डूबते रस-फुहारों में
जन-जन को डुबोते ,
दर्शक रहूँगी ,
कठिन कर्तव्य की कर्म-गीता का संदेश
कानों से सुनती-गुनती रहूँगी .
*
लेकिन ,
जब अँधे-युग का ,
सारा महाभारत बीत जाने पर ,
बन-तुलसी की गंध से व्याप्त
अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले ,
ओ सूत्रधार ,तुम चुपचाप अकेले
अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,
उन्हीं क्षणों में तुम्हारे मन से
जुड़ना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ
*
यहां कुछ समाप्त नहीं होता ,
क्योंकि तुम सदा थे रहोगे ,
और मैं भी .
लीला तो चल रही है
सृष्टि के हर कण में ,
हर तन में ,हर मन में .
इस सीमित में उस विराट् को
अनुभव करना चाहती हूँ.
*
कि सारी वृत्तियों पर छाये
इस सर्वग्रासी राग को,
समा लो अपने में .
लिए जाओ अपने साथ
जो असीम में डूबते मुझसे पार
अनंत होने जा रहा है .
*
वही अनुभूति ग्रहण कर
मन एक रूप हो जाए.
कि यह भी अपरंपार हो जाए .
व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,
जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें !
और फिर अनासक्त ,
डुबो दूँ, अथाह जल में,
अपनी यह रीती गागर
.*
bahut sunder kavita!
जवाब देंहटाएंबहुत गहन रचना ...सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंशैशव की लीलाओँ में
जवाब देंहटाएंवात्सल्य भरे नयनों की छाँह तले ,
सबसे घिरे तुम ,
दूर खड़ी देखती रहूँगी .
यौवन की उद्दाम तरंगों में ,
लोकलाज परे हटा ,आकंठ डूबते रस-फुहारों में
जन-जन को डुबोते ,
दर्शक रहूँगी ,
वाह! कित्ता प्यारा छंद है..कितना पावन निवेदन..समीप रहने की उत्कंठा ...पर स्पर्श की चाह नहीं..।
बन-तुलसी की गंध से व्याप्त
अरण्य-प्रान्तर में वृक्ष तले ,
ओ सूत्रधार ,तुम चुपचाप अकेले
अधलेटे अपनी लीला का संवरण करने को उद्यत,
एकदम दृश्य घूम गया..क्षीर सागर में आधे लेटे..आंखें मूंदे हुए विष्णु जी और माँ लक्ष्मी का।
उन्ही क्षणों में तुम्हारे मन से
जुड़ना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ होना चाहती हूँ
ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं मैंने..इस समय आराध्य को पाना ...बहुत अच्छा भाव लगा प्रतिभा जी...मुझे तो वृन्दावन में ही असीम शांति अनुभव हुई.....जबकि वहां लीलाओं की हलचल है...हर जड़ वहां गतिमान है......और हर चेतना उस जड़ता का वेग पाने के लिए आतुर।
magar आपकी ये वाली भावना मेरे लिए एकदम नयी thi।
इस सीमित में उस विराट् को
अनुभव करना चाहती हूँ.
अपने होंठों पर गिरह बांधकर अपने मन में गहरे डूब जाना...फिर अपने आप में इस तरह खुलना कि..संसार और हमारे बीच कृष्ण आ खड़े हो जाएँ। सीमित में विराट का अनुभव...तभी हो सकता होगा...जब स्थूल छोड़ हम सूक्ष्म शरीर कि चेतना पा जाएँ।
कि सारी वृत्तियों पर छाये
इस सर्वग्रासी राग को,
शायद इस stanza में लिखा हुआ अनुभव ही ''परमहंस'' mehsoos करते होंगे...जो संसार से तटस्थ होकर श्रीकृष्ण के समीप पहुँच जाया करते हैं।
वही अनुभूति ग्रहण कर
मन एक रूप हो जाए.
कि यह भी अपरंपार हो जाए .
व्याप्त हो जाए हर छुअन में, दुखन में,
'मीरा चरित' में एक जगह वृन्दावन की ओर बढ़ते हुए मीरा के तलवों में छाले पड़ जातें हैं....मगर उन्हें इनका भान नहीं...कोई पीड़ा नहीं....अपितु कहती हैं अपनी सखी स्वरुप दासियों से....की ''धन्य हैं ये मांस पिंड...जो श्रीकृष्ण के लिए समर्पित हुए हैं ...'' ।
कहाँ ऐसा सौभाग्य की हम भी ये अनुभव पा जाएँ.....हर सुख में तो एक तरह से हो भी सकता है..मगर दुःख में भी आभार का भाव आ जाये और सुख पाने की चेष्टा न रहे..तो कहने ही क्या फिर।
जो चलती बेला छा रही हो तुम्हें !
और फिर अनासक्त ,
डुबो दूँ अथाह जल में,
अपनी यह रीती गागर
यहाँ फिर :( समझने में दिक्क़त है प्रतिभा जी....अनासक्ति तो समझ आ गयी....सारी मनोवृत्तियाँ तो कृष्ण को अर्पित कर ही दीं हैं...ओह्ह्ह ! शायद रीति गागर से तात्पर्य रीता हुआ मन है....शायद देह भी हो सकती है.......दोनों ही तरह से समझा जाए तो दोनों ही अर्थ दोनों ही समापन बहुत achhe lage...........रीता मन कृष्ण के भक्ति जल में डुबो कर...जग में रहकर भी जग से दूर होकर कृष्ण के हो जाना...........और रीति देह के अवसान के बाद.....आत्मा की मुक्ति....मोक्ष की प्राप्ति।
प्रतिभा जी.....मैंने एक किताब पढ़ी थी ''ब्रज के भक्त'' उसमे एक माता जी का वर्णन है...जिनके एक अनुयायी (दिलीप राय जी) बहुत अच्छा गाते थे....वे माता (इनका नाम मेरी मूर्ख बुद्धि स्मरण नहीं कर पा रही..) अपने अनुभव में लिखतीं हैं...,''कि एक बार जब वे उनके सम्मुख गा रहे थे..तो माता ने श्री कृष्ण को साक्षात् दिलीप जी के सामने पाया''........क्या पता ऐसा ही कवियों के साथ भी होता हो.....:) कौन जाने..इस तरह कि कविताओं को लिखते समय आपको भी भगवानजी का आशीर्वाद मिला होगा..।?
khair..
''परम सौभाग्य मेरा..इस कविता को इतने अच्छे से पढ़ने का ..गुनने का मुझे मौका मिला...''।
आपकी अनदेखी aagya अनसुनी सहमति से इसे ले जा रहीं हूँ.....एकाकी क्षणों में कभी ये मुझे संबल देगी।
shukriya .. shabd is kavita ke liye chhota pad raha hai... jo keh nahin pa rahin hoon....ummeed hai..aap samajh jayengi...
pranaam !