सोमवार, 6 सितंबर 2010

कथा एक -

कथा एक -
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इन  भीड़ भरी राहों की गहमा-गहमी में  हर ओर पथिक   मिल जाते हैंआगे-पीछे ,
दो कदम साथ कोई कोई चल पाता पर हँस-बोल सभी  जा लगते अपने ही रस्ते.
 अपनी गठरी की गाँठ न कर देना ढीली ,नयनों में कौतुक भर  देखेंगे सभी लोग ,
चलती-फिरती  बातें काफ़ी हैं आपस की ,औरों  के किस्से जाने सबको बड़ा शौक .
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 वे गाँव- घरों के भीगे हुए पुराने पल ,सड़कों पर बिखरे अगर धूल पड़ जाएगी .
अनमोल बहुत है एक अमानत सी जब तक  ,खुल गई टके भर की कीमत रह जाएगी
जाने क्या लोग समझ लें ,जाने क्या कह दें, बोलना बड़ा भारी पड़ जाता कभी-कभी
चुपचाप ज़रा रुक लें लंबा अनजाना पथ, फिर चल देना है आगे  जिधर राह चलतीं .
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वैसे तो पात्र बदल जाते हरबार यहाँ पर कथा एक चलती आती है लगातार !
इस पथ के जाने कितने ऐसे किस्से हैं ,संवाद वही ले पर पात्र बदलते बार बार
जाने कितने गुज़रे होंगे इस मारग से ,कितनी आँखें रोई होंगी अनगिनत बार  ,
जाने कितनों की निधि लुट गई अचानक ही ,लग गए साथ सहयात्री बन कर गिरह-मार .
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जाने कितने गाँवों की पगडंडी चलते हम जैसे  सारे  लोग यहां तक आ पहुँचे, ,
कुछ भटके से तकते हरेक चेहरा ऐसे ,  ख़ुद की   पहचान कहीं खो आए हों जैसे ,
 इस मेले की यह आवा-जाही जो दिखती है, हर संझा को खाली हो जाता सूनसान  ,
थक कर चुपचाप बैठ जाती तरु के तल में दिनभर की चलती थकी हुई यह घूम-घाम.
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अनजाने आगत के प्रति क्यों पालें  विराग  ,जो द्वार खड़ा उसका भी थोड़ा मान रहे ,
सम हो कर जिसका दाय उसे सौंपो उसका , संयमित मनस् में हर आगत का मान रहे
लंबा अनजाना पथ रे बंधु, ज़रा रुक लें आवेग शमित करने को आगे  कहां ठौर,
कहने को तो  कुछ तो नहीं बचा चुपचाप चलें जब तक राहें मुड़ जाएँ अपनी कहीं और.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर भाव से पिरोई प्रस्तुति।

    हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।

    हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

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  2. इस मेले की यह आवा-जाही जो दिखती है, हर संझा को खाली हो जाता सूनसान ,
    थक कर चुपचाप बैठ जाती तरु के तल में दिनभर की चलती थकी हुई यह घूम-घाम.

    बहुत अच्छे शब्द...''आवाजाही का पेड़ तले विश्राम हेतु बैठ जाना.....'' पहली बार एकदम समझ ही नहीं आया...fir samajh gayi..:)

    और..

    ''कहने को तो कुछ तो नहीं बचा चुपचाप चलें जब तक राहें मुड़ जाएँ अपनी कहीं और.''

    हम्म..सही कहतीं हैं आप....आजकल तो डर के साथ साथ अजनबियत इतनी बढ़ गयी है...कि ट्रेन में बैठा हर सहयात्री...राजनीति या क्रिकेट पर बहस करने कि बजाये...बाबा रामदेव के विभिन्न योग करना पसंद करता है......
    :)

    ''इस पथ के जाने कितने ऐसे किस्से हैं ,संवाद वही ले पर पात्र बदलते बार बार ''

    ये बात आपके लिए और अन्य लेखकों के लिए भी कितनी सत्य हैं....जैसे मुझे बहुत सी भूली बिसरी बातें आपके शब्दों ने याद दिलायीं...कल कोई और होगा...उसका दूसरा अनुभव होगा.....आप वहीँ रहेंगी...आपके शब्द वही रहेंगे......ये शब्द भी जाने कितनी मनोदशाओं को मनोभावों को मूक दृष्टि से देखते हुए अपने आप में विलय कर लेंगे।

    आपकी 'कथा' पढ़कर अच्छा लगा...आपके संस्मरण बहुत अच्छे होंगे....लिखते होंगे आप तो मैं ढूंढकर पढूंगी.....नहीं लिखते तो निवेदन है...लिखियेगा प्रतिभा जी....:)

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