गुरुवार, 1 जुलाई 2010

कौन गति !

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कौन गति !
एक नन्हीं-सी ज्योति !
माटी में आँचल में अँकुआता बीज !
काल -धारा में बहे जा रहे जीवन को
निरंतरता की रज्जु में बाँधता,
भंगुर-से तन में सँजोए नवनिर्माण कण
काल से आँख मिलाती नव-जीवन रचती
धरती या नारी ?
*
उस अंतर्निहित ज्योति का स्फोट
दर्पण पर प्रतिवर्तित असह्य प्रकाश !
स्तबध काल-भुजंग अँधिया जाये
अपना दाँव न चल सके
तो तुम सहानुभूत या भय-भीत से
बोल दिए -
'नारी की छाया परत
अंधा होत भुजंग !'
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निःस्व समर्पण के क्षणों में
बहुत भाती है न बहुरिया ?
फिर मस्ती में डूबा मन ,और आहत अहं
जब बिठा नहीं पाता संगति
व्यवहार -जगत की वास्तविकताओं से
परिणामों से दामन बचा
बचते-भागते
उसी पर दोष धरते, गरियाते ,
बन जाते हो ख़ुद
राम की बहुरिया !
*
सोचते रहते हो -
'तिनकी कौन गति
जे नित नारी संग?'
सुनो कबीर,
जिसमें सामर्थ्र्य होगी, भागेगा नहीं,
अर्धांग में धारण कर
बन जाएगा पूर्ण-पुरुष !
निर्भय-निर्द्वंद्व !
*

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