शनिवार, 27 मार्च 2010

मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ

स्वर मुझे दो ,मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ .
*
भाव में डूबे अगम्य अगाध होकर ,
व्याप जाने दो हवाओं की छुअन में ,
लहर में लिखती रहूँ जल वर्णमाला ,
कौंध भऱ विद्युतलता के अनुरणन में
कुहू घन अँधियार व्याप्त निशीथिनी में
किसी संकल्पित सुकृत की पारणा हूँ
*
शंख की अनुगूँज का अटका हुआ स्वर
घाटियों के गह्वरों में घूम-आए ,
शिखऱ छू जब अंतरिक्षों में बिला ,
आकाश गंगा के तटों को चूम आए
बहुत लघु हूँ ,बहुत भंगुर हूँ भले ही ,
पर किसी अपवाद की संभावना हूँ !
*
घंटियाँ बजने लगी हैं शिखर पर अब ,
लौ कपूरी डालती फेरे चतुर्दिक्,
लहर में झंकारते अविरल मँजीरे
आरती का ताप हो जाता समर्पित ,
जन्म फेरा बन भले ही रह गया ,
चिर-काल की पर मैं निरंतर साधना हूँ !
*

2 टिप्‍पणियां:

  1. भावनाओं को अल्फाजों में बाखूब समेटा है आपने प्रतिभाजी...

    बहुत लघु हूँ ,बहुत भंगुर हूँ भले ही ,
    पर किसी अपवाद की संभावना हूँ

    क्या खूब कहा है...

    आलोक साहिल

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  2. अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं.... बहुत सुंदर कविता....

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