शनिवार, 16 जनवरी 2010

चलो कहीं निकल चलें

!
बस्ती से दूर किसी जंगल मे टहल चलें !
खिले-खिले मुक्त मन लपेटलाग छोड सभी ,
खिल-खिल हँसी से भरी मनचाही बातें हों !
अपनी बेवकूफियाँ सुनाएं - सुने मुक्तमन ,
किसी और नई जगह निकल चलें-सैर करें !
*
नदिया के तीर बैठ लहरों की बनन - मिटन ,
फिसलती बालू से सीप-शंख बीनेगे ,
बीती सो बात गई ,रीति-नीति सारी
बेमानी हो छूट गई !
सारे ये झंझट अब यहीं छोड़ निकल चलें !
*
.टेरना बेकार ,गुनगुनाता चल अकेला मन ,
प्रात कहीं होगा और रात कहीं बीतेगी ,
अपने काम का हो जो ,समेटने को क्या धरा,
फेन बुलबुलों से भरी प्याली तो रीतेगी !
कहे-सुने बिना ,अनायास उठ निकल चलें !
चलो कहीं निकल चलें !
*

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