लौट चल रे मन ,उसी फिर कटघरे में , 
फिर वहीं के एक खाँचे में समाने , 
उसी चक्कर में निरंतर घूमने को , 
जो कहीं भी ले न जाये कुछ बताने , 
*
पुरातन वटवृक्ष जिसकी छाँह में ,
लिक्खा उधारों का रहा जो ब्याज बाकी 
कौन जाने कौन चुकता कर गया है ,
कौन ले कर भार बैठा मूल का भी
लौट चल रे ,यहां रोकेगा न कोई , 
स्वयं से कैसे करेगा अब बहाने !
*
ज्यों पिता का प्यार पुत्री को बिदा दे ,
डालियां हिलती हुई आशीष जैसी ,
सघन पत्तों से छलक कर तरलतायें 
उस झुके से शीष को अभिषेक देतीं 
क्या पता कब कौन लौटेगा यहां पर 
एक दूजे की कथा सुनने-सुनाने
*
लाभ  हानि विचारने  का सुध नहीं क्यों   
जब निभाना हैं यहाँ के सभी    धंधे
काल के कुछ दंश  तीखे हैं बहुत 
पर जी रहे है अभी तक तो भले चंगे 
बुढ़ापे को याद हैं   अपना ज़माने 
और यौवन के निराले ही फ़साने
*
शनिवार, 23 जनवरी 2010
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