जब अपने से छोटे
और उनसे भी छोटे
रुख़सत हो
निकलते चले जाते हैं सामने से
एक-एक कर ,
अपना जीवन अपराध लगता है .
जब वंचित रह जाते हैं लोग,
उस सबसे जो हमने पाया ,
तरसते देख गुनाह लगती हैं
अपनी सुख-सुविधायें कि दूसरे का हिस्सा
हम अब भी दबाये बैठे हैं .
अपनी सारी क्षमताये बेकार
कि अब कौन सी सार्थकता बाकी रह गई ?
भाग्यशाली हैं वे ,
जो जीवन-मृत्यु को
सही सम्मान दे ,
समय से प्रस्थान कर जाते हैं .
*
सोमवार, 18 जनवरी 2010
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