सोमवार, 14 जून 2010

भइया का पत्र

चिट्ठी के एक ही पृष्ठ से मैं पूरी गाथा पढ़ जाऊं !
नेह तुम्हारा पा ,जाने क्यों उमड़-उमड़ आता मेरा मन ,
बड़े बंधु के आगे जगता ,छोटी सी बहिना का बचपन !
इस कमरे में जहाँ बैठ कर पढ़े जा रही तेरे आखर ,
हर कोने में लगता जैसे नया उजास छा गया आकर
जाने क्यों आँखें भऱ आईं कोई पूछे क्या समझाऊं !
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भले एक आभास मिला लगता तू सिर पर हाथ धर गया
तू न कहे पर अंतरतम तक पहुँचा भाव, अभाव भर गया !
कागज पर घुल बिखर गई पर वही इबारत उभरी उर पर !
पढ़ना चाहा बार-बार हर बार नयन आये पर भर भर
इतना रोदन उमड़ पड़ा ,आँचल भर आँसू कहाँ छिपाऊँ !
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उदासीनताओं के झटके जहाँ कठिन कर गये हृदय-तल!
आज तुम्हारा स्नेह नयन में मेरे भर देता आँसू जल
कोई कमी नहीं फिर भी तो मन करता है तुझे पुकारूँ
तेरे नयनों में अपना वह पहलेवाला रूप निहारूं !
व्याकुल मन ही सुने न मेरी कैसे और किसे बतलाऊं !
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इतने अश्रु बहाये सचमुच सारा मन का मैल धुल गया
और कंठ में आ अंतर की रुद्ध नदी का वेग खुल गया
भइया, आज तुम्हारी चिट्ठी हिला गई मन के तारों को ,
अब तो निभा लिये जाऊंगी ,दुनिया भर के व्यवहारों को
जिससे टिकी पढ़ रही कागज दीवारों को तिलक लगाऊँ !
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भइया आज तुम्हारा ख़त पढ़ जाने कितना रोना आया ,
धन सा मन में धरे रही सब, कुछ न किसी को भी बतलाया
उस घर का थोड़ा-सा खाना ,शायद मुझको तृप्ति दिला दे ,
और वहाँ थोड़ा रुक जाना , यह छाया अवसाद घटा दे !
थोड़ा सा आकाश वहाँ का अपने नयनों में भर लाऊं !
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अपना यह घर, पर वह घर किस तरह पराया करके भूलूँ
बार-बार मन करता जाकर वही पुरानी देहरी छू लूँ !
भइया तेरे पावन मन का,और अहेतुक नेह-जतन का ,
इतना बल मिल गया कि सारा श्रम विश्राम पा गया मन का
आज तुम्हारी यह पाती ही शुभाशीष सी माथ चढ़ाऊं !
*
पूछेंगे सब लोग हुआ क्या मैं किस-किस को उत्तर दूंगी
कभी किसी से बाँट न पाऊं उस मन को कैसे टोकूंगी
नाम तुम्हारा जब आयेगा काम-धाम सब पड़ा रहेगा
पूछो मत कुछ आज आयगा सारे दिन रह-रह कर रोना
जाने कब की रुकी रुलाई उमड़े कैसे बस कर पाऊँ !
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